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शब्दार्थ श्रमण v० भगवंत म० महावीर को वं• वंदनाकर ण नमस्कार कर जे० जहां सं० शंख स० श्रमणो-*
पासक ते० वहां उ० आकर सं० शंख स० श्रमणोपासक को ए. ऐसा ब० बोले तु० तुमने दे० देवानु । प्रिय हि० कल अ० हमको अ० स्वतःने ए० ऐसा व० कहाथा तु० तुम दे० देवानुप्रिय वि० विपुल अ० अशन जा० यावत् वि० विचरेंगे त० तब तुः तुम पो० पौषध शाला में जा. यावत् वि. विचरने को त० इससे सु० अच्छा तु• तुमको दे० देवानुप्रिय अ० हमको ही नींदते हो ॥ २३ ॥ अ० आर्यो
समणं भगवं महावीरं वदति णमंसंति वंदित्ता नमंसित्ता जेणेव संखे समणो
वासए तेणेव उवागच्छंति २ ता संखं समणोवासगं एवं वयासी तुम्भेणं देवाणुहै प्पिया ! हिजो अम्हे अप्पणाचेव एवं वयासी तुम्भेणं देवाणुप्पिया ! विउलं असणं
जाव विहरिस्सामो तएणं तुम्मं पोसहसालाए जाव विहरिए तं सुट्टणं तुम्मं देवाणु.
प्पिया ! अम्हे हीलेसि ॥ २३ ॥ अजोत्ति ! समणे भगवं महावीरे ते समणोभावार्थ
भगवंत को वंदना नमस्कार कर शंख श्रमणोपासक को ऐसा वोले अहो देवानुप्रिय ! तुमने स्वतःने हम को भर ऐसा कहा था कि विपुल अशनादि बनाकर उस को भोगते हुवे यावत् पाक्षिक पौषध अंगीकार करते हुवे
रेंगे, फीर तुम पौषधशाला में यावत् पौषध कर विचरने लगे तो अहो देवानुप्रिय ! तुम हमारी महीलना करो यह क्या अच्छा है? ॥२३॥ श्रमण भगवंत महावीर स्वामी उन श्रमणोपासकों को ऐसा बोले कि
अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिजी
* पकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *