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पंचणाणाइं भयणाए ॥ २२ ॥ सवेदगाणं भंते ! जहा सइंदिया । एवं इत्थिवेदगावि एवं पुरिसवेदगावि नपुंसगवेदगावि, अवेदगा जहा अकसाइया ॥ २३ ॥ आहारगाणं भंते ! जहा सकसाइया, णवरं केवलनाणंवि ॥ अणाहारगाणं भंते ! जीवा किंणाणी अण्णाणी ? मणपज्जवनाणवजाइं णाणाइं, अण्णाणाइं तिण्णि भयणाए ॥ २४ ॥ आभिणिबोहियनाणस्सणं भंते ! केवइए विसए ५० ? गोयमा ! से समासओ चउबिहे प० तंजहा दव्वओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ, दवओणं
आभिणिबोहियनाणी. आएसेणं सव्वदव्वाइं जाणइ पासइ, खत्तओणं आभिणि भावार्थ अलेशी में केवल ज्ञान की नियमा ॥ २१ ॥ सकपायी, क्रोध, मान, माया व लोभ कषायी में चार ज्ञान
तीन अज्ञान की भजना अकषायी में पांच ज्ञान की भजना ॥ २२ ॥ सवेदी, स्त्रीवेदी, पुरुपवेदी व नपुंसकवेदी में चार ज्ञान तीन अज्ञान की भजना. अवेदी में पांच ज्ञान की भजना सवेदीपना नववे गुणस्थान
पर्यंत पाता है ॥ २३ ॥ आहारक में पांच ज्ञान तीन अज्ञान की भजना अनाहारक में मनापर्यव ज्ञान कछोड़कर शर ज्ञान तीन अज्ञान की भजना ॥ २४ ॥ अहो भगवन् ! आभिनियोधिक ज्ञान का विषय
कितना कहा है ? अहो गौतम! आभिनियोधिक ज्ञान के चार भेद द्रव्य से, क्षेत्र से, काल मेव
* अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी .
प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदव सहायजी ज्वालाप्रसादजी *