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भावार्थ
402 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी
'अद्धासमए सिय पुढे सिय णो पुढे, जइ पुढे णियमा अणंतेहिं ॥ १९ ॥
अहम्मत्थिकाएणं भंते ! केवइएहिं धम्मत्थिकाय.? असंखेजेहि, केवइएहिं अहम्म. थि• ? णस्थि एकेणवि, सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स ॥ एवं एएणं गमएणं सव्वे विसट्ठाणएणं णत्थि एक्कणवि पुट्ठा परटाणेहिं आदिल्लएहिं तिहिं असंखेजएहिं भाणियव्वं ॥ पच्छिल्लएमु तिसु अणता भाणियव्वा जाव अहा समओत्ति । केवइएहिं
अद्धा समएहिं पुटे ? णत्थि एक्केणवि ॥ २० ॥ जत्थणं भंते ! एगे धम्मत्थिकाय से स्पर्शी हुई है क्यों की अनंत जीव के प्रदेश रहे हुवे हैं ऐसे ही पुद्गलास्तिकाय के भी अनंत प्रदेशों को स्पर्श कर रही है. अद्धा समय क्वचित् स्पर्श क्वचित् स्पर्श नहीं क्यों की अढाइ द्वीप में ही मात्र काल रहा हुवा है. जब स्पर्शता है तब निश्चय ही अनंत प्रदेश से स्पर्शता है. ॥ ११ ॥ अहो भगवन् ! अधर्मास्तिकाय कितने धर्मास्तिकाय के प्रदेश मे स्पर्शी हुई है ? अहो गौतम ! असंख्यात प्रदेश में अधर्मास्तिकाय से सी हुइ है. शेष सब धर्मास्तिकाया जैसे जानना. इस क्रम से आकाशास्तिकाय यावत् अद्धा समय तक कहना. अपने स्थान आश्री अपना स्थान को एक भी नहीं स्पर्श हुवे हैं, पर स्थान आश्री पहिले के तीन असंख्यात और पीछे के तीन के अनंत प्रदेश स्पर्श हुवे हैं यावत् अद्धा समय अद्धा समय से एक भी नहीं स्पर्शा हुआ है ॥ २० ॥ अब अवगाहना द्वार कहते हैं अहो भगवन् ! जहां धर्मास्तिकाया
प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी.