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शब्दार्थ |
सूत्र
भावार्थ
48 पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र
यावत् म०
रायप्रश्रेनीय में जा० यावत् पं० पांच व० वर्डिशक प० प्ररूपे अ० अशोक वशिक जा० (सो० सौधर्म वर्डिशक म० महाविमान अ० अर्ध ते तेरह स० शतसहस्र आ० लंबे दि० चौडे ए० ऐसे ज० जैसे सू० सूर्याभ त० तैसे उ० उपपात स शक्रका अ० अभिशेक त० तैसे ज० जैसे मू० सूर्याभ रायप्पसेइणिज्झे जात्र पंच वडिंसगा पण्णत्ता, तंजहा- असोय वडिंसए जाव मज्झे सोहम्म डिसए महात्रिमाणे अद्धतेरस जोअणसय सहस्साई आयाम विक्खंभेणं एवं जहा सूरिया तत्र उववाओ, सक्करस्य अभिसेओ तहेव जहा सूरियाभस्स;
44 दशवा शतक का छठा उद्देशा
इस रत्नप्रभा पृथ्वी के उपर सूर्य चंद्र, ग्रह नक्षत्र व तारे को उल्लंघकर आगे जावे वहां सौधर्म देवलोक कहा है. वहां पांच विमान कहे हैं. उनके नाम १ अशोकावतंसक २ सप्तवर्णावतंसक ३ चंपकावतंसक ४ चतावतंसक ५ और ५ बीचमें सौधर्मावतंसक है. यह साढ़े बारह लक्ष योजन का लम्बा चौडा है. } उसमें उत्पात सभा है. उत्पात सभा में उत्पात शैय्या है. उस काल उस समय में शक्र देवेन्द्र देवराजा
उत्पन्न होकर आहार पर्याय, शरीर पर्याय, इन्द्रिय पर्याय श्वासोश्वास पर्याय व भाषामन पर्याय इन पांच पर्यायों बांधकर बैठेहुए फीर वहां से अभिषेक सभा में गये. वहां पूर्वाभिमुखहो सिंहासन पर बैठे और } त्रायत्रिशक, सामानिक व आभियोगिक देवताओं को बोलाकर कहने लगे कि शक्र देवेन्द्रका अभिषेक करो इत्यादि सब वर्णन रायप्रसेणो सूत्रमें सूर्याभ देव जैसे कहना वैसे ही अलंकार सभामें आकर अनेक उत्तम
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