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शब्दार्थ
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क. कहां भ० भगवन् स• शक्र दे. देवेन्द्र की स० सभा सु० सुधर्मा ५० प्ररूपी गो० गौतम जं. जंबूद्वीप में मं० मेरु प० पर्वत की दा० दक्षिण में इ० इस ररत्नप्रभा पु० पृथ्वीकी ए० ऐसे ज० जैसे रा० तं. पुढवी, राई, रयणी, विज्जू, ॥ तत्थणं सेसं जहा सक्कस्स लोगपालाणं ॥ एवं जाव वरुणस्स णवरं विमाणा जहा चउत्थसए सेसं. तंचेव जाव णोचेवणं मेहुणवत्तियं ॥ सेवं भंते भंतेत्ति ॥ जाब विहरइ ॥ दसम सयस्स पंचमओ उद्देसो सम्मत्तो ॥ १० ॥ ५॥
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* कहिणं भंते ! सक्करस देविंदस्स देवरण्णो सभा सुहम्मा पण्णत्ता ? गोयमा! क जंबूद्दीवे दीवे मंदरस्स पन्वयरस दाहिणेणं इमीसे रयणप्पभाए पुढनीए एवं जहा भावार्थ परिवार आदिका सब अधिकार शक्रेन्द्र जैसे कहना. ईशानेन्द्र के सोम महाराजाको कितनी अग्र महिषियों
कहीं ? अहो आर्यों ! चार अग्रमहिषियों कहीं पृथ्वी, रति, रजनी, व विद्युत् शेष सब शक्रेन्द्र के लोक पाल जैसे कहना. ऐमेही वरुण तक चारों लोकपालों का कहना. और विमान चौथा.शतक जैसे कहना. अहो भगवन् ! आपके वचन सत्य हैं यह दशवा शतक का पांचवा उद्देशा पूर्ण हुवा ॥ १० ॥५॥
3 पांचवे उद्देशे में देवियों की वक्तव्यता कही आगे देव संबंधी मुधर्मा सभा का कथन करते हैं. अहो | भगवन् ! शक्र देवेन्द्र की सुधर्मा सभा कहां है ? अहो गौतम ! इस जम्बूद्वीप के मेरु पर्वत की दक्षिण
८१ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्रा अमोलक ऋषिजी
* प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *