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पंचांग विवाह पत्ति ( भगवती )त्र
पुहत्तेणं पढमे णो अपढमे ॥ ५६ || सकसायी कोहकसायी जाव लोभकसायी एगत्तेणं पुहत्तेणं जहा आहारए, अकसायी जीवे सिय पढमे सिय अपढमे, एवं मणुस्सेवि, सिद्धे पढमे जो अपढग ॥ पुहत्ते जीवा मणुस्सा पढमावि अपढमाधि, सिद्धा पढमा णो अपढमा ॥ १७-१ णाणी-एमयू पुहत्तेर्ण जहा सम्मट्टिी, आमिणि
अहियणाणी जाव मणपजवषाणी. एगत्तपुहत्तेणं एवं क्षेत्र, णरं जस्सजं . अस्थि, केवलणाणी. जीवे मणुस्से सिद्धेश एमत्तपुहलेणं पडमा जो अपतमा ॥ अण्णाणी मई अण्णाणी सुयअण्णाणी विभंगणाणी एमत्त पुहत्तेणं जहा आहारए श्री प्रथम है परंतु अप्रथम नहीं है ॥ १६ ॥ सकपषी क्रोधकषायी पावत् लोभ अषयी एक अनेक आश्री आवरक जैसे जानना. अप्पयी जीक व मनुष्य एक आश्री स्यात् श्यम स्यात् अप्रथल है सिद्ध आश्री प्रथम है परंतु अप्रथम नहीं है. अनक आश्री जीव मनुष्य प्रथम भी हैं और अप्रथम भी है। भिद्ध प्रथम हैं परंतु: अप्रथम नहीं हैं ॥ १७ ।। ज्ञानी का एक आश्री समदृष्टि जैसे कह. आभिनिबोधिक ज्ञानी यावत् मनःपर्यवं ज्ञानी का एक व अनेक आश्री भी ऐसे ही कहना. केबल ज्ञानी जीव मनुष्य व सिद्ध. में एक. अनेक आश्री प्रथा हैं करंतु अप्रथम नहीं हैं. मतिअज्ञानी, नमानी विभंग बानी का
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Now अगरहवा शतक की पहिली
भावार्थ
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