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शब्दार्थ
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पंचमांग विवाह पण्णति ( भगवती) सूत्र 828
अ० देकर भ. होवे त० उस को ए० यह त० तैसे जा. यावत् रा. राजपिंड आ० आधाकर्म । अ० अनवध ब० बहुत ज० मनुष्य की म० बीच में ५० कहने वाला भ० होने से उस को त. उस की अ०है आ. आराधना जा. यावत् रा० राजपिड ॥ १२॥ आ० आचाये उ. उपाध्याय ० भगवन् स० अपने ग० गण को अ० अग्लानपने सं० ग्रहण करने अ० अग्लानपने उ० उपग्रहण करते क० कितने भ० भव में सि० सीझे जा० यावत् अं० अंतकरे गो० गौतम अ० कित
अणवज्जेत्ति अण्णमण्णस्स अणुपदावेइत्ता भवइ, सेणं तस्स एवं तहचेव जाव रायपिंडं, आहाकम्मं णं अणवज्जेत्ति, बहुजणमझे पभावइत्ता भवइ, सेणं तस्स जाव अस्थि आराहणा जाव रायपिंडं ॥ १२ ॥ आयरिय उवज्झाएणं भंते ! सवि सयंसि गणं । अगिलाए संगिण्हमाणे, अगिलाए उवगिण्हमाणे, कइहिं भवग्गहणेहिं सिज्झइ जाव
अंतं करेइ ? गोयमा ! अत्थेगइए तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झइ, अत्थेगइए दोच्चेणं सभा में निरवद्य आहार है ऐसा कहे. इस तरह विपरीत प्ररूपना से ज्ञानादिक की विराधना होती है.og ऐसा करनेवाला यदि आलोचना प्रतिक्रमण करके काल करे तो आराधक होता है और आलोचना किये विना काल करे तो विराधक होता है, ॥ १२॥ अहो भगवन् ! आचार्य उपाध्याय अपने गणको अग्लानपने अंगीकार करते, आदरदेते कितने भव में सीझे, बुझे यावत् सब दुःखों का अंत करे ?
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पांचवा शतकका छठा उद्देशा84889
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भावार्थ
manawmammy