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शब्दार्थ १५० समर्थ ॥ १ ॥णा जाना अ० अरिहंत से मु० सूना अ० अरिहंत से वि. विशेष जाना अ० अरिहंत ।
अणगारे इहगए य पोग्गले परियाइत्ता विउब्वइ, सेसं त चेव जाव लुक्ख. पोग्गलं णिद्धपोग्गलत्ताए परिणामेत्तए ? हंता पभू ॥ से भंते ! किं इहगए पोग्गले परि- ९४५
याइत्ता जाव नो अण्णत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विउन्वइ ॥१॥ णाय मेयं अरहया, भावार्थ अन्य स्थान के पुद्गलों ग्रहण कर वैक्रेय नहीं करते हैं. ऐसे ही एक वर्ण अनेक रूप, अनेक वर्ण एक
रूप आदिकी चौभंगी छठे शतक के नववे उद्देशे जमे जानना. मात्र यहां के पुद्गल ग्रहण कर वैक्रय करे इतना कहना शेष रूक्ष पुद्गल स्निग्ध पुद्गलपने यहां के पुद्गल ग्रहण करके परिणमे वहांतक सब अधिकारी जानना. ॥१॥ राजगृही नगरी के श्रेणिक राजाको चेलणा राज्ञी के कूणिक, हल्ल, व विहल्ल ऐसे तीन पुत्र थे कूणिक अन्य माताओंसे उत्पन्न हुए अग्यारह पुत्रों की साहायतासे अपने पिता श्रेणिक को पिंजरे में डालकर स्वयं राज्याख्द हुवा. ओर अग्यारह पुत्रों को परस्पर अपनार विभाग देदिया. फीर वह
नग्रही से चंपा नगरी में आकर रहने लगा, उन के हल्ल व विहल्ल नायक दोनों भ्राताओं संचानक नामक गंधहस्ती पर आरूढहोकर दीव्य कुंडलादि व दीव्य वस्त्रोसे विभूषत बनकर हारसहित क्रीडा करते थे. कूणिक की राज्ञी पद्मावतीने ऐसा सुनकर मत्सरपनासे से उक्त इस्ती व हारलेने केलिये कूणिक राजा को प्रेरणा की. कूणिकने अपने लघु भ्रातासे उसकी याचना की. वे भयभीत बनकर अपना हस्ती व परिवा
पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र
सातवा शतक का ननवा उद्दशा 1
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