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शब्दार्थ
42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
दे देवेन्द्र का अवग्रह रा० राजा का अवग्रह ग० गृहपति का ० अवग्रह सा० आगार वाले का अवग्रह सा०स्वधर्मी का उ० अश्ग्रह ॥४॥ जे जो इ.ये अ आर्यपने म. श्रमण णि निर्ग्रन्थ वि०विचरते हैं ए० उन को अ०मैं अ. अनुज्ञादेताहूं ति. ऐसा क० करके सश्रमण भ० भगवंत म०महावीर को बं०वंदनाकर १० नमस्कार कर त० एसी दि० दीव्य जा. यान विमानपे दु. पारूढ होकर जा० जिस दि० दिशि में से पा० आया ता. उस दि. दिशि में पपीछागया ॥५॥ भं. भगवन् भ० भगवान गो० गौतम
गगहे, गहवइउरगहे, सागारियउग्गहे, साहम्मिय उग्गहे ॥४॥ जे इमे अजत्ताए समणा णिग्गंथा विहरंति, एएसिणं अहं उग्गहं अणुजाणामी तिकटु । समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ वंदइत्ता णमंसइत्ता तमेवदिव्वं जाणविमाणं दुरूहइ, दुरूहइत्ता है
ज्ञामेवदिसिं पाउन्भूए तामेवदिसिं. पडिगए ॥ ५ ॥ भंतेत्ति ! भगवं गोयमे समणं अहो भगवन् ! अवग्रह कितने कहे हैं.? अहो शक्र ! अवग्रह के पांच भेद कहे हैं. जिन के नाम. ११. देवेन्द्र का अवग्रह २ राजा का अवग्रह ३ गृहपति का अवग्रह ४ आगारी का अवग्रह और ५ स्वधर्मा
का अवग्रह ॥ ४ ॥ भगवंत महावीर स्वामी से ऐमा सुनकर इन्द्र बोला कि अहो भगवन् ! जो श्रमण निग्रंथ यहां पर आर्यपने विचरते हैं उन सब को मैं अवग्रह देता हूं यावत् अच्छा जानता हूं, ऐसा, कहकर श्रमण भगवंत को वंदना नमस्कार कर उस ही पालक विमान में बैठकर जिस दिशि में से आए थे।
*प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *
भावार्थ