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भावार्थ
शब्दार्थ 4 यावत् दे० देवलोक प० परिग्रह ते वे म० मनुष्य प. परूपे स.'आयुष्यवन्त श्रमण ए. ऐसे अ०१
अठाइस अं० अंतर द्रोप स० स्वकीय से आ०, लंबे वि० चौडे भा० कहना न० विशेष दी० द्वीप का उ० सूत्र उसो एवं अट्ठावीसवि अंतरद्दीवा. सएणं २ आयाम विक्खंभेणं भाणियन्वा
नवरं दीवे २ उद्देसो ॥ एवं सब्वेवि एए अट्ठावीसं उद्देसगा ॥ सेवं भंते ! *अंतरद्वीप कहा है. इस का सब अधिकार एक रुक द्वीप जैसे कहना ॥९॥ ४॥ यों ही वैषाणिक
द्वीप का कहना परंतु इनना विशेष दक्षिण पश्चिम चरिमान्त कहना ॥९॥ ५॥ उत्तर पश्चिम के चरिमांत से लांगुलिक द्वीप ॥ ९॥६॥ (यह प्रथम चौक हुवा) ऐसे ही उत्तर पूर्व के चरिमांत से लवण समुद्र में चार सो योजन अवगाह कर जावे वहां चार सो योजन का लम्बा चौडा हय कर्ण द्वीप कहा है। ॥९॥ ७॥ दक्षिण पूर्व चरिमांत से लवण समुद्र में जावे वहां चार सो योजन का गज कर्ण द्वीप ॥२८॥ दक्षिण पश्चिम चरिमांत से गो कण द्वीप ॥९॥९॥ उत्तर पश्चिम चरिमांत से शष्कुल द्वीप ॥९॥१०॥
सरा चौक हवा) ऐसे ही आदर्श मुख द्वीप ॥९॥ ११॥ मेंढ मख द्वीप ॥२॥ १२॥ अयो मुख द्वीप॥२॥१३॥ गो मुख द्वीप॥१॥२४॥ (यह तीसरा चौक हुवा) उक्त चारों लवण समुद्र में पांच सो योजन
जावे तब पांच सो योजन के लम्बे चौडे आवे) अश्वमुख द्वीप ॥२॥१८॥ हस्ती मुख द्वीप ॥९॥ १६ ॥ सिंह ने रमुख द्वीप ॥ १ ॥ १७॥ व्याघ्र मुख द्वीप ॥९॥ १८ ॥ (यह चौथा चौक हुवा, लवण समुद्र में छ सा
4.१ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी 2.
• प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *