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बालग्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
भाव
॥विंशतितम शतकम् ॥ वेइंदिय मागासे, पाणवहे उवचएय परमाणू । अंतरबंधे भूमी, चारण सोबक्कमा
२४२० जीवा ॥ १ ॥ रायगिहे जाव एवं वयासी-सिय भंते ! जाव चत्तारि पंचबेइंदिया एगयओ साहरण सरीरं बंधति २ ता तओ पच्छा आहारैतिवा परिणामेतिवा सरीरंवा बंधति ? णो इणटे समटे, वेइंदियाणं पत्तेयाहारा पत्तेयपरिणामा पत्तेय सरीरं
उन्नीसवे शतक के अंत में वाणव्यतर के आहार की वक्तव्यता कही. आहार से शरीर का बंध होता. हैं इसलिये उन्नीसवे शतक में इस का कथन करते हैं. इस शतक में दश उद्देशे कहे हैं जिन के नामबेइन्द्रियादिक २ आकाश ३ प्राणातिपात ४ उपचर्या ५ परमाणुका ६ रत्नप्रभादिक के अंतर ७ जीवप्रयोगबंध ८ कर्म अकर्मभूमिका ९ जंधाचारण विद्याचारण विचार और १. सोपक्रमनापक्रम विचार. इन दश में से प्रथम उद्दशा का कथन करते हैं. ॥१॥ राजगृह नगर में यावत् ऐसा बोले
अहो भगवन् ! चार पांच वेइन्द्रिय एकत्रित मीलकर क्या साधारण शरीर बांध और लपीछे क्या आहार करे, परिणमात्र या शरीर बांध ? अहो गीतम! यह अर्थ योग्य नहीं है. क्यो की
प्रत्येक वेइन्द्रिय अलग २ आहारवाले हैं, अलग २ परिणपाने वाले हैं, और अलग २ शरीर बांधने
*प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी*