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शब्दार्थ
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पंचमांग विवाहपण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र
० मैं दे० देवानुपिय की अं० पास मुं० मुंड भ• होकर जा० यावत् प० प्रवा अंगीकार करूं अ० यथाई सुखं दे० देवानुप्रिय मा० मत प० प्रतिबंध ॥११॥ त० तब से वह उ. उदायन रा०राजा स.श्रमण भगवन्त म० महावीर से एक ऐसा वु० बोलाते ह. हृष्ट तुष्ट स० श्रमण भ. भगवन्त म. महावीर को 40 वंदनकर ण. नमस्कार कर अ० अभिषेक ह० हस्ति पर दु० चढकर स० श्रमण भ० भगवन्त म. महावीर की अं० पास से मि० मृगवन उ० उद्यान से प० नीकलकर जे. जहां वी० वीतिपय
अहाहं देवाणुप्पिया ! मापडिबंधं ॥ ११ ॥ तएणं से उदायणे राया समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे हट्ठ तुटे, समणं भगवं महावीर वंदित्ता णमंसित्ता, तमेव अभिसेकहत्थि दुरूहइ. दुरूहइत्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ मियवणाओ उजाणाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमइत्ता जेणेव वीइभए
णयरे तेणेव पहारेत्थगमणाए ॥ तएणं तस्स उदायणस्स रण्णो अयमेयारूवे बनकर यावत् दीक्षा अंगीकार करूंगा. अहो देवानप्रिय ! तम को जैसा सख हो
। करो विलंब मत करो ॥ ११ ॥ जब श्रमण भगवंत महावीरने उदायन राजा को ऐस कहा तब वह बहुत हृष्ट तुष्ट यावत् आनंदित हुवा और श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को वंदना नमस्कारकर वैतेही अभिषेक हस्ति पर आरूढ होकर श्रमणा भगवंत महावीर की पास से मृगवन उद्यान में से नीकलाई
* तेरहवा शतकका छठा उद्देशा
भावार्थ
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