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शब्दाधी "
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48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिजी"
सभा में है। सभा में दे० देवशय्या में दे० देवदष्य के अंतर में अं: अंगुल के अ० असंख्यातवे भा० भाग मात्र ओ ला अवगाहना.स. शक्रेन्द्र के दे० देवेन्द्र दे० देवराजा के सा० सामानिक दे० देवपने उ० उत्पन्न हुवा इत० तब ती० तिष्यकदेव अ० तुर्त का उ० उत्पन हवा पं० पांच प्रकार की प. प्राप्ति से प० प्रयोति भाव को ग० जावे आ० आहार पर्याप्ति स०. शरीर इं० इंन्द्रिय आ. श्वासोश्वास पर्याप्ति भा० भाषा . लंकिच्चा सोहम्मे कप्पे सयंसि विमाणंसि उक्वायसभाए देवसयाणिजसि देवसंतरिए
अंगुलस्स असंखेज भागमेतीए ओगाहणाए, सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो सामाणिय देवत्ताए उचवण्णे ।तएणं तीसए देवे अहुणोव वण्णमेत्ते समाणे पंचविहाए पज्जुत्तीए पजत्ति भावं गच्छइ तंजहा आहारपजत्ती सरीर इंदिय आणापाणपज्जत्तीए, भासामणपजताए। तएणं तं तीसयं देवं पंचविहाए पज्जत्तीए पजत्तभावं गयं समाणं सामाणिय परिसोव वण्णया देवया करयल परिग्गाहयं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु जएणं
विजएणं वदावेइ वढावेदता एवं वयासी अहोणं देवाणुप्पिएहिं दिव्वं देविट्ठी, पर्याति से पर्याप्त बने. उन पर्याप्त बने हुवे देव को सामानिक परिषदावाले देवोंने हस्तद्वय जोकर दश नख एकत्रित करके मस्तक को आवर्तन करके "जय-विजय" शब्दों से वधाये. वधाकर ऐसा बोले अहो ! आप देवानुप्रिय को दीव्य देव ऋद्धि, देवद्युति, व देवानुभाव. प्राप्त हुवा है. जैसे आप को दीव्यदेव ऋद्धि, द्युति व महानुभाव है वैसे ही शक्रेन्द्र को है और जैसे शक्रेन्द्र को दीव्य देव ऋद्धि कांति
* प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी मालाप्रसादजी*
भावार्थ