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शब्दार्थ
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4. पंचमाजविवाह पण्णाति (भगवती ) सत्र 28+
+ क कितनी भ० भगवन् पु० पृथ्वी प. प्रती गो० गौतम म. सात पु० पृथ्वी ५० प्ररूपी तं. वह
णेरइयाणं भंते ! अणंतराहारा ततो णिवत्तणया एवं परिचारणा पदं णिरवसेसं भाणियव्वं ॥ सेवं भंते ! भंतेत्ति॥ तेरसमसयस्सय तइआ उद्देसो सम्मत्तो ॥१३॥३॥ कइणं भंते ! पुढवीओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! सत्त पुढीओ पण्णत्ताओ, तंजहा दूसरे उद्देशे में देवता की वक्तव्यता कही. देवता प्रायः परिचारणावाले होते हैं इसलिये परिचारणा का प्रश्न करते हैं. अहो भगवन् ! नारकी उपपात क्षेत्र में प्राप्त हुवे पीछे आहार करे, पश्चात् शरीर निवृति करे, फीर परिवारणा करे, फीर परिणमे, और परिणमे बाद क्या चिकुर्वणा करे? हां गौतम! सब वैसे ही जानना. इस का सब कथन पनवणा के चौतीसवे पद में परिचारणा पद अनुसार जानना.
अहो भगवन् ! आप के वचन सत्य हैं यह तेरहवा शनक का तीमरा उद्देशा पूर्ण हुवा. ॥ १३ ॥३॥ १ तीसरे उद्दश में परिचारणा कही. वह नरक में होने से नरक का अधिकार कहते हैं.+ अहो भगवन् !
इस उद्देशे में द्वार बतानघाली दो गाथाओं कितनेक स्थान दीखने में आती है सो कहते हैं. जेरइया फास पणिही निरयते चव लोयमझेय । दिसि विदिसाणय पवहा पव्वत्तणं अत्यिकाएहिं ॥१॥ अत्थोपएस फुसमाणा
ओगाहणणायाय जीव मोगाढा । अत्थि पएसनिसीयण बहुस्समे लोग संठाणेत्ति ॥ २ ॥ ऐसे बारह द्वार कहे हैं इस का * विवेचन उद्देशे में ही आता है.
तेरहवा शतक का
भावार्थ
चौथा उद्देशा
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