________________
अमोलक ऋवीजी
१८२४
शब्दार्थ जमे २० रत्नप्रभा जा. यावत् अ० अधो स० सातवीं ॥ १॥ अ० अयो म. सातवी भ० भगवन् } *
पु० पृथ्वी में पं० पांच अ. अनुत्तर म० बहुत बडे जा. यावत् अ० अप्रतिष्ठान न नरक छ० छठीत. तमा पु. पृथ्वी न० नरक से म• बहुत लंबे म० बन चौडे म० बहुत आकाश वाले म० बडे शुन्य स्थानक णो नहीं म० महाप्रवेश णो० नहीं आ० आकीर्ण णो० नहीं आ. आकुल णो नहीं अ० __रयणप्पभा जाव अहे सत्तमा ॥ १ ॥ अहे सत्तमाएणं भंते ! पुढवीए पंच अणुत्तरा
महति महालया जाव अप्पइट्ठाण तेणं णरगा छट्ठीए तमाए पुढवीए णरएहितो महत्तरा चेव, महाविच्छिण्णतरा चेव, महोवासंतरा चेव महापतिरिकतरा चेव णो तहा महा
पवेसणतराव णो आइण्णतराचवणो आउलतरा चेव, णोअणामाणतरा चेव ४, तेसुणं... भावार्थ पृथ्वी कितनी कही हैं ? अहो गौतम ! पृथ्वी मात कही है, जिन के नाम रत्नप्रभा यादत् सातवी की
। तमतम प्रभा ।। १ ।। अहो भगान् ! सातवी पृथ्वी में पांच अनुत्तर बडे नरकाचाम कहे हैं वगैरह अप्र
तिष्ठान तक कहना. वे पांचों नरकावासाओं छठी तमा पृथ्वी के नरकावासाओं से लम्बाइ व चौंडाइ में बहुत बड़े हैं बहुत विस्तारवाले, बहुत आकाश क्षेत्रकाले और बहुत शून्य स्थानकवाले हैं, छठी नरक में जैसे जीवों का महा प्रवेश है वैसा इस में नहीं है अत्यंत आकीर्ण नहीं है अत्यंत आकुल नहीं हैं व अत्यंत संकीर्ण नहीं है. उस नरक में रहे हवे नारकी छठी तमा में रहे हवे नारकी से वेदनीयाटिक अ
* प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *