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शब्दार्थ 141मुझे अः अतिशेष णा० ज्ञान दं० दर्शन स० उत्पन्न हुवा ए. ऐसे अ० इस लोक में जा. यावत् दी०
दाप स० समुद्र ॥ ॥ १५ ॥ सरल शब्दार्थ
बहुजणस्स एव माक्खइ जाव एवं परूबेइ, अत्थिणं देवाणुप्पिया ! ममं अतिसेसे णाण दंसणे समुप्पण्णे एवं खलु अस्सि लोए जाव दीवाय समुदाय ॥ १५ ॥ तएणं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स अंतिए एयमटुं सौच्चा णिसम्म हत्थिणापुरे णयरे सिंघाडग तिग जाव पहेमु बहुजणो अण्णमण्णस्स एव माइक्खइ जाव परूवेइ एवं खलु देवा.
णुप्पिया ! सिवे रायरिसी एवमाइक्खइ, अत्थिणं देवाणुप्पिया! मम अतिसेसे छ हस्तिनापुर नगर में तापसों के आवास में आया. वहां अपने भंडोपकरण रखकर हस्तिनापुर नगर में भावार्थ
श्रृंगाटक यावत् बहुत मार्गवाले स्थान में बहुत मनुष्यों को ऐसा कहा यावत् प्ररूपा अहो देवानुप्रिय ! मुझे
तशय ज्ञान दर्शन उत्पन्न हवा है इस से मैं कहता हूं कि इस लोक में सात द्वीप व सात समद्र हैं ॥१५॥ उस शिवरानर्षि की पास से ऐसा सुनकर हस्तिनापुर नगर के शृंगाटक आकारवाले मार्ग में यावत् पथ में
बहुत लोक परस्पर ऐसा बोलने लगे कि अहो देवानुप्रिय ! शिवराजर्षि ऐसा कहते हैं यावत् प्ररूपते हैं। | अहो देवानुप्रिय ! मुझे अतिशय ज्ञान दर्शन उत्पन्न हुवा है उस से सात द्वीप समुद्र में देख सकता हूं.
अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी -
* प्रकाशक-राजांबहादुर लाला मुखदेवसहायनी ज्यालाप्रसादजी *
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