________________
१.१ अनुवादक-बालब्रह्मचारी मनि श्री अमोलक ऋषिजी 22
जायसवे जहाणियंठुद्देसए जाव तेण परं वोच्छिण्णा दीवाय समुद्दाय ॥ सेकहमेयं भंते एवं ? ॥ गोयमादि! समणे भगवं महावीरे भगवं गोयम एवं वयासी जण्णं गोयमा! ते बहुजणा अण्णमण्णस्स एवमाइक्खंति, तंचेव जाव सव्वं भाणियव्वं जाव भंडगणिक्खेवं करेइ, हत्थिणापुरे णयरे सिंघाडग तंचेव जाव वोच्छिण्णा दीवाय समु'दाय तएणं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स अंतिए एयमटुं सोचा णिसम्म तंचेव तेणपरं बोच्छिण्णा दीवाय समुदाय तंणं मिच्छा, ॥ अहं पुण गोयमा! एव माइक्खामि जाव परूवेमि एवं खलु जंबूद्दीवादीया दीवा लवणादीया समुद्दा संठाणओ. एगविहिविहाणा उद्देशे में जैसे भिक्षा का अधिकार कहा वैसे ही करते हुवे श्री श्रमण भगवंत की पास आकर वंदना नमस्कार कर पूछने लगे कि अहो भगवन् ! जो शिवराजर्षि कहते हैं. यह किस तरह है ? श्रमण भगवंत महावीरने गौतम को ऐसा कहा कि अहो गौतम ! जो बहुत लोक परस्पर ऐसा कहते हैं कि शिवराजर्षि , कहता है कि, मुझे अतिशय ज्ञान दर्शन उत्पन्न हुवा है इससे मैं जान सकताहूं कि सात द्वीप व सात समुद्रसे आगे कुच्छ नहीं है वगरह जो कथन है वह मिथ्या है. अहो गौतम ! मैं इस प्रकार कहता है यावतीन मरूपता हूं कि जम्बूदीप आदि द्वीप, और लवण समुद्र आदि समुद्र संस्थान से सब एक सरिखे वर्तुला-13
*प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी
भावार्थ
|