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18 संखेज वित्थडा णरया किं सम्माविठ्ठीहिं णेरइएहि अविरहिया, मिच्छद्दिट्टीहि
णेरइएहिं अविरहिया, सम्मामिच्छविट्ठीहिं णेरइएहिं अविरहिया ? गोयमा ! सम्मदिट्ठीहिं रइएहिं अबिरहिया मिच्छट्ठिीहिं जेरइएहिं अविरहिया सम्मामिच्छट्ठिीहिं णेरइएहि अविरहिय विरहियाग एवं असंखेज वित्थडेसुवि तिण्णि गमगा भाणियव्वा ! एवं सक्करप्पभाएवि । एवं जाव तमाएंवि ॥ अहे सत्तमा एणं भंते ! पुढवीए पंचसु अणुत्तरेसु जाव संखज वित्थडे णरए किं सम्मद्दिट्ठी
णेरड्या पुच्छा ? गोयमा ! सम्मट्ठिी णेरइया ण उवाजेति, मिच्छट्ठिी गैरइया चास में से संख्यात योजन के विस्तारवाले नरकावास क्या समाष्ट से अविरहित हैं, मिथ्यादृष्टि से अ- विरहित हैं या सममिथ्यादृष्टि से अविरहित हैं ? अहो गौतम ! समदृष्टि नारकी से अविरहित हैं, मिथ्या दृष्टि नारकी से अविरहित हैं और सममिथ्या दृष्टि नारकी से विरहित, अविरहित दोनों प्रकार के नरकावास रहे हुवे हैं. संख्यात योजन के विस्तारवाले नारकी जैसे असंख्यात योजन के विस्तारवाले नारको का कहना. जैसे रत्नप्रभा का कहा वैसे ही शर्कर प्रभा यावत् तम प्रभातक का जानना. सातवी तमतमप्रभा के पांच अनुत्तर नरकावास में यावत् संख्यात विस्तारवाले में नारकी क्या समदृष्टि उत्पन्न होते हैं वगैरह
* अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
* प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रमादजी *
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