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शब्दार्थ : जावे उ० ऊर्ध्व सं० संख्यातवा भाग में ग० जावे ॥ ३६ ॥ च० चमर अ० असुरेंद्र उ० ऊर्ध्व अ० १. सूत्र | जेभागे गच्छइ ॥ ३६ ॥ चमरस्सणं भंते ! असुरिंदस्स असुररण्णो उड़ अहे ति
भावार्थदेह योजन होवे इसलिये तीन संख्यात भाग तिच्छी लोक में जावे. तिच्छी लोक में योजन का आधा
विभाग रहा था वह आधा विभाग उक्त देढ योजन में मीलाने से पूरे चार भाग संख्यात गुने हो ॥ ३६ ॥ अहो भगवन् ! चमर नामक असुरेन्द्र का ऊर्ध्व अधो व तिर्यक गति का विषय में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है ? अहो गौतम ! एक समय में चपर अमुरेन्द्र सब से थोडा ऊर्ध्व लोक में जाता है इस से तिर्छा लोक में संख्यात गुणा अधिक क्षेत्र जाता है और उस से अधो लोक में संख्यात भाग अधिक जाता है. एक समय ऊर्च गति के विषय में उस के मंदपने की कल्पना मे बीन में
+ यहां कोई प्रश्न करे कि सूत्र में संख्यात भाग मात्र ही ग्रहण किया है और यह नियमित भाग 1 १ कैसे बना सकते हो? जितना क्षेत्र चमरेंद्र नीची दिशामें एक समय में जाता है उतना क्षेत्र जाने को शक है
देवेन्द्र को दो समय लगता है वैसे ही शक्नेन्द्र का ऊर्ध्व गमन काल और चमरेन्द्र का अधो गमन काल तुल्य है इस से निश्चय होता है कि दो समय में जितना क्षेत्र शक्रेन्द्र नीचे आबा है उतना क्षेत्र उपर एक समय में जाता है. इस से अधो क्षेत्र दुगुना कहा. और बीच का तीछा क्षेत्र देव गुना कहा. वैसे ही चूर्णिकाकार भी कहते हैं कि एगे समएणं तिरियं दिवढे गच्छइ उद्धं दो जोयणाणिं सक्कोत्ति ॥ .
अनुवादक-वालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक
* प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादगी*
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