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सूत्र
भावार्थ
48 पंचांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र
तिपोग्गला णो परिणया अपरिणया ॥ ७॥ तणं अहं ते मायमिच्छविण देवं एवं वयासी - परिणममाणा पोग्गला परिणया णो अपरिणया, परिणमंतीति पोगला. परिणया णो अपरिणया ॥ से कहमेयं भंते ! एवं ? गंगदत्तादि ! समणे भगवं महाबीरे गंगदत्तं देवं एवं वयासी अहं पिणं गंगदत्ता ! एव माइक्खामि ४ परिणममाणा पोग्गला जाव णो अपरिणया सच्चे मेसे अट्ठे ॥ ८ ॥ तरुणं से गंगदत्ते देवे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं एयमट्ठे सोच्चा णिसम्म हट्ठ तुटु समणं : भगवं महावीरं वेदइ णमंसइ २ त्ता णच्चासपणे जाव पज्जुवासइ ॥ ९ ॥ तणं से गंगदत्ते देवे...
सोलहवा शतक का पांचवा उद्देशा
भी परिणत नहीं हैं.
हुवे पुलों परिणत हैं [नहीं है. अहो भगवन् कहा कि अहो गंगदत्त !
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॥ ७ ॥ तब मैंने उस मायी मिध्यादृष्टि उत्पन्न देव को ऐer aer क परिणमते परंतु अपरिणत नहीं हैं और जो पुद्गल परिणमते हैं वे परिणत हैं. परंतु अपरिभुत यह किस तरह है ? श्रमण भगवंत महावीर स्वामीने उस गंगद्रत्त देव को ऐसा मैं भी वैसे ही कहता हूं यावत् मरूपता हूं कि परिणमते हुवे पुद्गल परिणत हैं। और जो पुद्गल परिणमते हैं वे भी परिणत हैं परंतु अपरिणत नहीं है. यह बात सत्य है || ८ || अब वह गंगादत्त देव श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी की पास से यह अर्थ सुनकर अवधारकर हृष्ट तुष्ट बनकर