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.. असण्णीणं जाव अणुबंधो, णवरं पंचसमुग्घाया आदिल्लगा ॥ वेदो तिविहोवि ॥ अव
सेसं तंचेव जाव सेणं भंते ! पजत्ता संखेज्जवासाउय जाव तिरिक्खजोणिए रयणप्पभा जाव करेजा ? गोयमा ! भवादेसेणं जहण्णेणं दो भवग्गहणाई उक्कोसेणं अट भवग्गहणाई, कालादेसेणं जहण्णेणं दसवामसहस्साई अंतोमुहुत्तमब्भहियाई उक्कासेणं चत्तारि सागरोबमाइं चउहि पुषकोडीहिं अब्भहियाई एवइयं कालं जाव करेजा
॥ ३३ ॥ पज्जत्त संखेज वासाउय जाव जे भविए जहण्णकाल जाव सेणं भंते !
असंज्ञी पंचेन्द्रिय जैमे कहना परंतु केवली समुद्धात वर्जकर पांच समुद्रात कहना. और वेद तीनों कहना भावार्थ
शेष पहिले जैसे कहना यावत् वे संख्यात वर्ष के आयुष्यवालापर्याप्त संज्ञीतिर्यंच पंचन्द्रिय रत्नप्रभा यावत् करे ? अहो गौतम ! भवादेश से जघन्य दो भव एक तिर्यंच का एक नरक का तीसरी वक्त मनुष्य में उत्पन्न होवे उत्कृष्ट आठ भव करे १ तिर्यंच का २ नरक का पुनः ३ तिर्यंच ४ नरक ५ तिर्यंच ६ नरक ७ तिर्यंच ८ नरक. और नक्वे भव में मनुष्य ही होवे. काल आश्री. जघन्य दश
हजार वर्ष और अंतर्मुहून अधिक उत्कृष्ट चार सागरोपम रत्नप्रभा आश्री और चार पूर्व क्रोड अधिक लतियंच के चार भव आश्री. इतना काल तक रहे और इतनी गतागति करे. यह औधिक आश्री प्रथम
गमा कहा ॥३३॥ अहो भगवन् ! पर्याप्त संख्यात वर्ष के आयुष्यवाले संज्ञीतिर्यंच पंचेन्द्रिय जघन्य स्थिति
42 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋपीजी?
प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेव महायजी ज्वालाप्रसादजी.