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शब्दार्थ : चि० रहते हैं . संठान से ए. एक प्रकार का विः स्वरूप वि. विस्तार से अ० अनेकविध वि. | स्वरूप दु० दुगुने दु० दुगुने प्रमाण के जा. यावत् अ० इस ति तिर्यक् लोकमें अ० असंख्यात दी०
द्वीप समुद्र स० स्वयंभू रमण समुद्र पछेल्ला प० प्ररूपा स. आयुष्यमान् श्रमण ॥ १३ ॥ दी. द्वीप स. समुद्र के भ० भगवन् के० कितने ना० नाम प० प्ररूपे गो० गौतम जा. जितने लो० लोक में सु.
दृमाणा, समभरघडत्ताए चिटुंति, संठाणओ एगविहिविहाणा वित्थारओ अणेगविहिविहाणा दुगुणा दुगुणप्पमाणाओ, जाव अस्सि तिरियलोए असंखेज दीवसमुद्दा सयंभुरमणपज्जवसाणा पण्णत्ता समणाउसो ॥ १३ ॥ दीवसमुद्दाणं भंते ! केवइया.
नामधेजेहिं पण्णत्ता ? गोयमा ! जावइया लोए सुभा नामा, सुभारूवा, सुभागंधा, भावार्थ वगैरह मब अधिकार जीवाभिगम सूत्र जैसे जानना यावत् बाहिर के द्वीप समुद्र किनारे तक पानी से पूर्ण
भरे हुवे हैं, उबरा हुवा पानी है, चारों तरफ विखरता है, एरा हुवा घडा समान रहा है, चूड़ी के आकारवाला है, चौडाइमें एक २ एक मे दुगने हैं, इस तरह ताछे लोकमें द्वीप समुद्र रहे हुवे हैं. उस में छेल्ला समुद्र स्वयंभूरमण है ।। १३ ॥ अहो भगवन् ! द्वीप समुद्र के कितने नाम हैं ? अहो गौतम ! इस लोक में जितने शुभ नाम के, शुभ रूप के, शुभ गंध के, शुभ रस के, व शुभ स्पर्श के पदार्थों हैं. उतने नाम के सब द्वीप समुद्र हैं. और एक २ नाम के अनेक द्वीप समुद्र हैं. पाहिले एल्योपम
48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
* प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायगी ज्वालाप्रसादजी *