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शब्दार्थ समर्थ वि० विकुर्वणा करने को स० शक्र के अ० अशेष सा० सामानिक दे० देव के कितनें म.
महर्दिक त तैसे स० सर्व जा० यावत् ए. यह गो० गौतम स० वह ए. ऐसे भं० भगवनू ति० ऐसे १. दो० दूसरे गो० गौतम जा० यावत् वि. विचरते हैं ॥ १५ ॥ भं० भगवान त० तीसरा गो० गौतम वा०
वायुभूति अ० अनगार स० श्रमण भ० भगान्त जा. यावत् ए० ऐसा ब० बोले- ज० यदि भं भगवन् ॐ स० शक्र दे० देवेन्द्र दे० देवराजा जा. यावत् प० समर्थ वि. विकुर्वणा करनेको ई० ईशान दे० देवेन्द्र दे० विसए विसयमेत्ते बुइए णोचेवणं संपत्तीए विकुर्दिवसुवा ३ तावत्तीसया, लोगपाला, अग्गमहिसीणं, जहेव चमरस्स णवरं दो केवलकप्पे. जंबूद्दीवे दीवे अण्णं तंचेव ॥ सेवं भंते भंते त्ति दोच्चे गोयमे जाब विहरइ ॥ १५ ॥ भंते त्ति भगवं तच्चे गोयमे वायुभूती अणगारे समणं भगवं आव एवं वयासी जइणं भंते ! सक्के देविंदे - देवराया जाव माहिट्ठीए एवइयं चणं पभ विकुवित्तए । ईसाणेणं भंते ! देविंदे देवशक, लोकपाल, अग्रमहिषी का अधिकार चपरन्द्र जैसे कहना. परंतु ये दो जम्बूदी। वैक्रय रूप से भरने को समर्थ हैं. अहो भागवन् ! आपके वचन वैसे ही हैं ऐसा कहकर अग्निभूति अनगार विचरने लमे ॥ १५ ॥ अव वायुभूति नामक अनगार श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार कर ऐसे बोले कि 'अहो भगवन् ! जब शक्रेन्द्र इतनी ऋद्धिवाले हैं गावत् इतने रूप क्रेय कर सकते हैं तब ईशा
२. पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) सूत्र
तीसरा शतकका पहिला उद्देशा-400
भावाथे