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शब्दार्थ
42 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
देवराजा के कितने म. महर्द्धिक ए. ऐसे ण. विशेष सामाधिक दो दो के मंपूर्ण जं जंबूदीप * अ० अवशेष त० तमे ॥ १६ ॥ ज. यदि भं० भगवन ई. ईशान दे देवेन्द्र म. महर्दिक ना. यावत प. समर्थ वि. विकर्वणा करने को दे देवानुप्रिय का अं अंतेवामी कु. कुरुदत्नपुत्र अ. अनगार प. प्रकृति भद्रिक जा. यावत वि. विनीत अ. अटभक्त मे अ० अंतर रहित पा पारणा में आ• आयंबिल ० परिग्रह त तप कर्म से उ० ऊर्थ बाहुप. करके मू. मूर्याभिमुख आ. आतापना भू: भूमि आ०
राया के महिढीए एवं तहेव, णवरं साहिए दो केवल कप्पे जंबद्दीवेदीवे अवसेसं तहेव ॥ १६ ॥ जइणं भंते : ईसाणे देविंदे देवराया ए महिढीए जाव एवइयं चणं पभू विकुवित्तए एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी कुरुदत्तपुत्ते नाम अणगारे पगइभदए जाव विणीए अट्ठमं अटुमेणं अणिक्खित्तेणं पारणए आयंबिल परिग्ग
हिएणं नवो कम्मेणं उद्धं बाहाओ पगिझिय, २ सराभिमुहे आयावणभमीए आयावे. नेन्द्र कितनी ऋद्धिवाले हैं यावत कितने रूप वैक्रय करसकते हैं? अहो गौतम : जैसे शकेन्द्र का कहा वैसे ही ईशानेन्द्र का जानना. मात्र इसमें विशेष इतना है कि साधिकदो जम्बूद्वीप को वैक्रेय रूपसे भरे ॥१६॥ अहो भगवन् ! जब ईशानेन्द्र इतना महर्दिक यावत् इतने वैक्रय रूप करने को समर्थहैं तब आपका अंतेवासी (शिष्य) कुरुदत्त पुत्र नामका अनगार प्रकृति का भद्रिक यावत् विनीत अटम अउम के (तेले तेले) निरंतर
* प्रकाशक-राजावहादुर लाला मुखदेवमहायजी ज्वालाप्रसादजी *
भावार्थ