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शब्दार्थ
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सु. प्रवीण स०श्रमणोपासक अ० जानेहवे जी० जीवाजीव उ० प्राप्त पु० पुण्य पा० पाप जा. यावत् अ०१, आत्मा को भा० भावता वि० विचरता था ॥ १ ॥ त उस उ०ऋषभदत्त मा० ब्राह्मण को दे. देवनंदा मा० ब्राह्मणी हो० थी सु० सुकुमार पा० हाथ पांव जा. यावत् पि. प्रियदर्शन वाली सु० सुरूपा स० श्रमणोपासिका अ० जाने जी0 जीव अजीव ५० प्राप्त पुल पुण्यपाष जा. यावत् वि. विचरती थी ॥२॥ ते.
पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र 40887
जाव अण्णसुय बहुसुय बंभण्णएसय नएमु .मुपरिनिट्ठिए, समणोवासए, अभिगय जीराजीवे उवलद्ध पुण्णपावे जाव अप्पाणं भावमाणे विहरइ ॥१॥ तस्सणं उसभदत्तस्स माहणस्स देवाणंदा णामं माहणी होत्था, सुकुमाल पाणिपाया नाव पिव
दसणा मुरूवा समणोवासिया अभिगयजीवाजीवा उवलद्धः पुण्णपावा जाब सामवेद व अथर्वणवेद का जाननेवाला था. जैसे स्कंदक का अधिकार कहा वैसे यहां कहना यावत् अन्य अनेक ब्राह्मण के नय भार्ग, न्याय मार्ग का जाननेवाला श्रमणोपासक था. जीवाजीवका स्वरूप जाननेवाला, पुण्य पाप का फल को देखनेवाला यावत् स्वतः की आत्मा को भावता हुवा विचरता था ॥१॥ उस ऋषभदत्त ब्राह्मण को देवानंदा नामकी भार्या थी. वह सुकोमल हस्त पांववाली यावत् प्रियदर्शन मुरूपा, श्रमणोपासिकाथी. वह जीवाजीव का स्वरूप जानती थी, पुण्य पाप का स्वरूप माप्त करती हुई यावत्
नवधा शतक का तेत्तीसवा उद्देशा
भावार्थ 1.
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