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पंचमांग विवाह पाणत्ति ( भगवती) मूत्र 4
दिसा किमादिया पुच्छा ? जहा अग्गेयी । गीयमा ! विमलाणं दिसा रुयगादीया रुयगप्पवहा, चउप्पदेसादिया, दुपदेसविच्छिण्णा, अणुत्तरा लोगं पडुच्च सेसं जहा अग्गेयी णवरं रुयग संठिया एवं तमावि ॥ ७ ॥ किमियं भंते ! लोएत्ति पवुच्चइ गोयमा ! पंचत्थिकाया, एसणं एवइए लोएत्ति पवुचई, धम्मत्थिकाए, अहम्मत्थिकाए आगासत्थिकाए, जीवत्यिकाए, पोग्गलत्थिकाए ॥ धम्मत्थिकाएणं भंते ! जीवाणं किं पवत्तइ ? गोयमा ! धम्मत्थिकारणं जीवाणं आगमण गमण भासुम्मेस मण आदिवाली है, दो प्रदेश की विस्तीर्ण है, अनुत्तर है. लोक आश्री अख्यात प्रदेशात्मक है, अलोक आश्री अनंत प्रदेशात्मक है, लोक आश्री मादि सान्त है अलोक आश्री नादि अनंत है और रुचक के संस्थान वाली है. ऐसे ही तमादिशा का अधिकार जालना ॥9॥ अब प्रतिद्वार कहने हैं. अहो भगवन ! यह 3 लोक है ऐसा क्यों कहा? अहो गौतम! धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्ति काय व पुद्गलास्तिकाय यों पंचास्तिकाय रूप लोक है. अहो भगवन् ! धर्मास्तिकाया से जीवों का क्या प्रवर्तन होता है ? अहो गौतम ! धर्मास्तिकाया से जीवों का आगमन, गवन, बोलना, उन्मेष, मन योग, वचन योग, काया योग और अन्य भी ऐसे मब चलन व स्वभाव प्रतिते हैं क्यों कि धर्मास्तिकाय गति
4.30 तरहवा शक का चौथा उदशा
भावार्थ
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