________________
शब्दार्थ
६२
48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
निर्गुणी णि मर्यादाविना के णि प्रत्याख्यान रहित पो० पोषध उ० उपवास का० काल के अवसर में का काल करके इ० इस.र० रत्तमभा पु० पृथ्वी में उ. उत्कृष्ट सा० सागरोपम ठि: स्थिति वाले ण नरक में णे. नारकीपने उ. उत्पन्न होवे स० श्रमण भ. भगवन्त म. महावीर रा० करते . उत्पन्न होवे उ० उत्पन्न हुवा व० कहना ॥ ४ ॥ अ० अथ भं० भगवन् सी. सिंह व० व्यापू ज जैने उ उत्सर्पिणी उ० उद्देशा में जा० यावत् प० पराभर णि निःशील ए. ऐसे ही जा. यावत् २० कहना णिम्मेरा, णिप्पच्चक्खाण पोसहोववासा कालमासे कालंकिच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उक्कोसं सागरोवमद्विइयंसि णरगंसि जेरइयत्ताए उववज्जेज्जा ? समणे भगवं महावीरे वागरेइ उववज्जमाणे उववष्णेत्ति वत्तव्वं सिया ॥ ४ ॥ अह भंते ! सीहे वग्घे जहा उस्सप्पिणी उद्देसए जाव परस्सरे एएसिं णिस्सीला एवं चेव जाव
वत्तव्यं सिया ॥ ५ ॥ अह भंते ! ढंके कंके पिलए मडए सिखीए एएणं णिस्सीला शील, व्रत, गण मर्यादा प्रत्याख्यान व पौषधोपवास रहिन काल करें तो इस रत्नप्रभा पृथ्वी में उत्कृष्ट एक सागरोपमकी स्थिति मे क्या नरक नारकीपने उत्पन्न होवे ? श्रमण भगवंत महावीर स्वामीने उत्तर दिया। कि उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न हुवे भी हैं ॥ ४ ॥ अहो भगवन् ! सिंह, व्याव वगैरह जो सातवे शतक के छट्टे उद्देशे में कहे वैसे वे शीलादि व्रत प्रत्याख्यान रहित यावत् नरक में उत्पन्न होते हैं ॥ ५ ॥ अहो
* प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदव सहायजी ज्वालाप्रसादजी *
भावार्थ