________________
शब्दार्थ.
क. कहां उ० उत्पात ५० प्ररूपा गो. गौतम जे. जो त. तहां प. नजदीक तक उस लेश्या वाला दे० देवावास त. तहां तक उस की ग. गति त. तहां तक उस का उ० उपपात प० प्ररूपा से वह त. तहां ग० गया हुवा वि. निराधना करे क. कर्म लेश्या को प० पीछापडे से वह त. नहाँ ग० गया
१९०८ हुवा णो नहीं वि० विराधनाकरे त लेश्या को उ० अंगीकार कर वि. विचरे ॥ १॥ अ० अनगार
देवावासा तहिं तस्स गई तहिं तस्स उववाए पण्णत्ते, सेयं तत्थगए विराहेजा कम्म
लेस्सामेव पडिवडइ, सेयं तत्थगए णो विराहेजा, तामेव लेस्सं उवसंपज्जित्ताणं । भावार्थ परिणाम की अपेक्षा से चरम सौधर्मादिक देवलोक की स्थिति को अतिक्रम परम सनत्कुमार देवलोक की
स्थिति को अप्राप्त होकर बीच में काल कर जावे तो वह अनगार वहां से कहां जाये और कहां उत्पन्न होवे ? अहो गौतम ! जिस लेश्या में साधु काल कर जावे उसी लेश्या में चरम व परप देवलोक की बीच से के ईशान देवलोक में उत्पन होवे. अब जिस लेश्या परिणाम से वह वहां उत्पन्न होता है उस लेश्या परिणाम की यदि वहां उत्पन्न हुवे पीछे विराधना करे तो वह कर्म लेश्या भाव लेश्या से
से हीनता को प्राप्त होती है परंतु द्रव्य लेश्या से हीन होवे नहीं क्यों की देवों को द्रव्य लेश्या अवस्थित में रहती है. याद यहां गमा हुवा लेश्या परिणाम की विराधना करे नहीं तो जिस लेश्या से वहां उत्पन्न
हुवा होवे उसी लेश्या सहित रहता है. ॥ १ ॥ अव विशेषपना से प्रश्न करते हैं. अहो भगवन् ! भावि-17
मुनि श्री अमोलक ऋषिजी .
* प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *