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शब्दार्थ
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Rep पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगव
लोक बु० कहा अ० अनादि अ० अनंत ५० परिमित सं० घेराया हवा हे० नीचे वि० वितणि म० मध्य ० में सं० संकुचित उ० उपर वि० विशाल अ० नीचे ५० पल्यंकाकार म. मध्य में व. श्रेष्ट ब० वज्र वि० शरीर वाला उ० उपर उ० ऊंचा मु० मृदंगाकार ते. उस सा० शाश्वत अ० अंनतजीव घ० घन
७३९ उ० उत्पन्न होकर नी० नष्ट होते हैं प० परिते जी० जीव घः घन उ० उत्पन्न होकर नी० नष्ट होते १७ हैं से वह भू० भूत उ० उत्पन्न वि० विनाश प. परिणम अ० अजीव से लो• देखते हैं ५० विशेष
विग्गहिए, उप्पिं उड्डमुइंगाकार संठिए, तेसिं चणं सासयंसि लोयंसि अणादीयंसि, अणवदग्गांस, परित्तसि, परिवुडसि, हेट्रा विच्छिन्नंसि, मझेसंखित्तंसि, उप्पिंविसालंसि, अहे पलियंकसंठियंसि मज्झे वरवइरविग्गाहियास, उप्पिं उड्डमुइंगाकार
संठियंसि, अणंता जीवघणा उप्पजित्ता २, निलीयंति परित्ता जीवघणा उप्पजिआर्य ! पुरुषादाणी श्री पार्श्वनाथ अरिहंतने शाश्वत, अनादि, अनंत, प्रदेश में परिमित, व अलोक से घेराया हुवा ऐसा लोक कहा है. वह नीचे विस्तारवाला, मध्य में संकुचित, व उपर विशाल है. वैसे ही नीचे पल्यंकासन के संठाणवाला, मध्य में वज्र के संठाणवाला, व उपर खडी मृदंग के आकारवाला है. ऐसा शाश्वत अनादि, अनंत, परिमित, परिवृत्त यावत् उपर खडी मृदंग के आकारवाला लोक में अनंत जीवों उत्पन्न होकर मरते हैं. जिप्ससे अनंत रात्रि होती हैं और परिते जीव उत्पन्न होकर मरते हैं जिस से ।
पांचवा शतक का नववा उद्देशा NRN