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49 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी 20%
भावार्थ
* त्रयोदशशतकम् * पुढवीदेव मणंतर पुढवी आहारमेव उववाए ; भासा कम्मणगारे, केया घडिया समुग्घाए ॥१॥ रायगिहे जाव एवं वयासी-कइणं भंते ! पुढगेओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! सत्त पुढवीओ पण्णत्ताओ, तंजहा-रयणप्पभा जाव अहे सत्तमा ॥१॥ इमीसेणं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए केवइया णिरयावास सयसहस्सा पण्णत्ता ? बारहवे शतक के अंत में आत्म स्वरूप का कथन किया आत्मा पृथिव्यादि आश्रीत हैं इसलिये इस तेरहवे शतक के प्रारंभ में पृथिवी का कथन करते हैं. इस शतक के दश उद्देशे कहे हैं १ पृथ्वी उद्देशे में नरक (पृथिव्यादि)का कथन २ देवता की प्ररूपणा ३ अंत आहारादिक का कथन ४ पृथ्वी मत वक्तव्यता ५ नरकादिक के आहार की प्ररूपणा : नरकादिक का उत्पात ७ भाषा का अर्थ ८ कर्मों का अर्थ ९ भावितात्मा अनगार और १० समुद्धात. अब इन में से प्रथम उद्देशा कहते हैं राजगृही नगरी के गुणशील उद्यान में श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को वंदना नमस्कार कर श्री गौतम स्वामी पूछने लगे कि अहो भगवन् ! पृध्वियों कितनी कहीं ? अहो गौतम ! पृश्वियों सात कहीं, जिन के नाम रत्नप्रभा यावत् सातवी तम तम प्रभा ॥१॥अहो भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी में कितने लाख नरकावास कहें हैं ? अहो,
...प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदर सहायनी.ज्वालाप्रसादजी.