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पण्णचि ( भगवती ) मूत्र 438
'पासई ॥१॥ केवलीणं भंते ! आधोधियं जाणइ पासइ ? एवं चैव एवं परमा होहियं एवं केवलिं एवं सिद्ध जाव जहाणं भंते ! केवली सिद्धं जाणइ पासइ, तहाणं सिद्धवि सिद्धं जाणड पासह ? हंता! जाणइपासह ॥२॥ केवली भंते !
भासेज्जवा वागरेजवा ? हंता भासेजवा वागरेजवा । जहाणं भंते ! केवली भासेज्जवा है वागरेजवा तहाणं सिद्धेवि भासेजवा वागरेजवा ? णोइणटे सम? ॥ से केणट्रेणं
भंते ! एवं वुच्चइ जहाणं केवली भासेजवा वागरेजवा णो तहाणं सिद्धे भासेजवा
वामरेजवा ? गोयमा ! केवलौणं सउट्ठाणे सकम्मे सबले सवीरिए सपुरिसकार जैसे जाने देख ॥ १॥ अहो भगवन् ! केवली मर्यादित क्षेत्र नाननेवाले अवधिज्ञानी को क्या जाने देखे? हां गौतम ! जैसे छअस्थ का कहा वैसे ही जानना. ऐसे ही परम अवधि ज्ञानी व केवल ज्ञानी व सिद्ध का जानना. जैसे केवली मर्यादित अवधि, परम अवधि केवल ज्ञानी व सिद्ध को जानते देखते हैं बैसे ही सिद्ध जानते व देखते हैं ॥२॥ अहो भगवम् ! क्या केवली बोलते हैं ? हां गौतम ! केवली पोलते हैं.41 अहो भगवन् ! जैसे केवली बोलते हैं वैसे ही क्या सिद्धं बोलते हैं ? अहो गौतम ! यह अर्थ योग्य नहीं है अर्थात् सिद्ध नहीं बोलते हैं. अहो भगवन् ! किस कारन से जैसे केवली बोलते हैं वैसे सिद्ध1
48. चउदहवा शतक का दशवा उद्देशा 48
भावार्थ