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शब्दार्थ
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48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी ६
माग्भार इ० यह भ० भगवन् र० रत्नप्रभा पु. पृथ्वी किं. क्या च० चरिम अ० अचरिम च० चरिमपद * नि० निर्विशेष भा• कहना जा० यावत् वे० वैमानिक फा० स्पर्श च चरिम किं. क्या च० चरिम अ०
पुढवी किं चरिमा अचरिमा ? चरिम पदं निरवसेस भाणियव्वं, जाव वेमाणियाणं
भंते ! फास चरिमेणं किं चरिमा अचरिमा ? गोयमा ! चरिमावि अचरिमावि, चरिम नहीं है. यदि रत्नप्रभा की बाहिर अन्य पृथ्वी होती तो इस का अचरिम का संभव था परंतु यह नहीं होने से अचरिम भी नहीं है. इन दोनों का अभाव से चरिम व अचरिम नहीं है. अथवा चरिम व अ अचरिम दोनों कहना. रत्नप्रभा पृथ्वी के अंत में रहे हुवे तदध्यासित क्षेत्र खंड तथाविध परमाणुयुक्त होने से चरिमाणी कहना. और बीच में बडे रत्नप्रभा आक्रान्त क्षेत्र खंड वे भी तथाविध परमाण युक्तहोने से अचरिम कहना. इस तरह उभय समुदायरूप यह रत्नप्रभा पृथ्वी है. इस के अभाव प्रदेश में चरिमान्त प्रदेश अचरिमान्त प्रदेश कहना. बाह्य खण्ड प्रदेश से चरिमान्त और मध्यखण्ड प्रदेश से अचरिमान्त इस तरह एकान्त दुनय वर्जना. रत्नप्रभा पृथ्वी जैसे शर्कर प्रभा यावत् वैमानिक देवतक का कथन करना. अहो भगवन् !' क्या वैमानिक देव स्पर्श चरिम मे क्या चरिम है या अचरिम है ? अहो गौतम ! चरिम भी है व अचरिम भी है. वैमानिक भव संभव स्पर्शन न होवे अर्थात् वहां उत्पन्न न होवे वह वैमानिक स्पर्श चरिम से चरिम है और जो स्पर्शन करे वह अचरिम है. इस का विशेष विवेचन
* प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायनी ज्वालाप्रसादजी *