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शब्दार्थ
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498 पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) मूत्र 488
व्याबाध उ० उत्पन्न करे छ० चर्मछेद क० करे णो नहीं इ० यह अर्थ सः योग्य णो० नहीं त० तहां ०स० शस्त्र क० संक्रमे ॥ ३ ॥ क० कितनी भं० भगवन् पु० पृथ्वी प० प्ररूपी गो० गौतम अ० आठ पु० १. पृथ्वी प० प्ररूपा तं० वह ज० जैसे र० रत्नप्रभा जा० यावत् अ० अधो स० सातवी ई० ईषत् प्रा०
विवाहंवा उप्पायइ छविच्छंदवा करेइ ? णो इणटे समटे नो खलु तत्थ सत्थं कमइ ॥ ३ ॥ कइणं भंते ! पुढवीओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! अट्ठ पुढवीओ पण्णत्ताओ, तंजहा रयणप्पभा जाव अहे सत्तमा, ईसिंपब्भारा ॥ इमाणं भंते ! रयणप्पभा छेदन भेदन करता हुवा व अग्निकाय से जलाता हवा उन जीव प्रदेशों को क्या पीडा, दुःख उत्पन्न कर सकता है या चर्म छेद कर सकता है ? अहो गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है. अर्थात् प्रदेशों में शस्त्र अतिक्रमता नहीं है ॥ ३ ॥ अहो भगवन् ! पृथ्वीओं कितनी कही है ? अहो गौतम ! आठ पृथ्वीयों कही हैं रत्नप्रभा यावत् ईषत् माग्भार पृथ्वी. अहो भगवन् ! यह रत्नप्रभा पृथ्वी क्या चरिम है या अचरिम है? अहो गौतम ! यह रत्नप्रभा पृथ्वी चरिम भी नहीं है व अचरिम भी नहीं हैं - रत्नप्रभा पृथ्वी की बीच में कोई अन्य पृथ्वी होती तो इस का चरिमपने का संभव था यह नहीं हो
* यहां चरिम अचरिम सापेक्ष्य वचन हैं. जो अन्तिम वस्तु होती है उसे चरिम कहते हैं जैसे पूर्व शरीर की अपेक्षा से चरिम शरीरी और अन्तिम नहीं सो अचरिम इस से रत्नप्रभा पृथ्वी का चरिम व अचरिम दोनों नहीं हैं. "
आठवा शतक का तीसरा उद्देशा 8-4030