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शब्दार्थ
पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र 428
अ० असुरकुमार जा. यावत् वे वैमानिक ॥ १ ॥ पूर्ववत् ॥ २-३-४-५ ॥ जी. जीव भं० भगवन् ।
पकरेइ एवं असुरकुमारेसुवि, एवं जाव वेमाणिएसु ॥ १ ॥ जीवेणं भंते ! जे भविए नेरइ. एस उववजित्तए से भंते ! किं इहगए नेरइयाउयं पडिसंवेदेइ, उववजमाणे नेरइयाउयं पडिसंवेदेइ, उववन्ने नेरइयाउयं पडिसंवेदेइ ? गोयमा ! नो इहगए नेरइयाउयं पडिसंवेदेइ, उववजमाणे नेरइयाउयं पडिसंवेदेइ, उववन्नेवि नेरइयाउयं पडिसंवेदेइ, एवं जाव वेमाणएसु ॥ २ ॥ जीवेणं भंते ! जे भविए नेरइएसु उव
वजित्तए सेणं भंते ! किं इहगए महावेयणे, उववजमाणे महावेयणे, उववन्ने महावेयणे? तक का सब अधिकार जानना ॥ १॥ अहो भगवन् ! जो नरक में नारकी पने उत्पन्न होने योग्य होता है? वह क्या यहां रहाहुवा नारकी का आयुष्य वेदता है, वहां उत्पन्न होते नारकी का आयुष्य वेदता है या उत्पन्न हुवे पीछे नारकी का आयुष्य वेदता है ? अहो गौतम ! नारकी में उत्पन्न होने वाला यहां मनुष्य तिर्यच में रहा हुवा नारकी का आयुष्य नहीं वेदता है परंतु वहां उत्पन्न होते वेदता है व उत्पन्न हुए । पीछे नारकी का आयुष्य वेदता है. ऐसे ही वैमानिक तक चौवीस ही दंडकका जानना ॥२॥ अहोई । भगवन् ! नारकी में उत्पन्न होने वाला जीव क्या यहांपरही महा वेदना वंत होवे, उत्पन्न होता हुआ महा बदनावंत होवे अथवा उत्पन्न हुए पीछे महा वेदनावंत होवे ? अहो गौतम ! कितनेक. यहां रहेहुवे वेद-41
8 da><38 सातवा शतक का छठा उद्देशा 9884
भावार्थ
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