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सूत्र
408 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
एहिं छन्भंगो, नोसन्नि नोअसन्निजीवे मणुयसिद्धेहिं तियभंगो ॥ सलेले जहा ओहिया, कण्हलेस्सा नीललेस्सा, काउलेस्सा जहा आहारओ णवरं जस्स अस्थियाओ ।
नंतर एक की उत्पत्ति का समय और पहिले के उत्पन्न हुए सो ३ बहुत सप्रदेशी बहुत अप्र(देशी. ऐसे ही एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय व सिद्ध छोड़कर सब पद में कहना, क्योंकि उक्त तीनों पद वाले संझी नहीं हैं. असंज्ञी का बहुत जीव आश्रित पृथिव्यादि में बहुत समदेशी बहुत अप्रदेशी एक ही भांगा पाता है. और इस सिवा अन्य सब में तीन भांगे पाते हैं. नरक, भूत्रनपति व वाणव्यंतर में असंज्ञी के संज्ञी होते हैं, इसलिये भूतकाल की अपेक्षा मे संज्ञी को भी असंज्ञी कहे हुवे है. नरकादिकमें असंज्ञीपना क्वचित् होता इस अपेक्षा पूर्वोक्त छ भांगे पाते हैं. ज्योतिषी, वैमानिक व सिद्ध असंज्ञी नहीं होने से ग्रहण नहीं किये गये हैं. नो संज्ञी नो असंज्ञी जीव के दोनों दंडक में जीव, मनुष्य व सिद्ध ऐसे तीन पद होते हैं. इन तीन पद में बहुत जीव आश्री तीन २ भांगे पाते हैं. सलेशी के जीव ऐसे दो दंडक जानना. दोनों में जीव तथा नरकादिक का औधिक दंडक जैसे | सलेशीपना में जीवपने की अनादि है. सिद्ध अलेशी होने से नहीं ग्रहण किये हैं. कृष्ण, नील व कापोत लेश्यावाले के दोनों दंडक आहारक जैसे कहना. नारकी में जिस लेश्या का प्रश्न होवे उसी लेश्या कहना. ज्योतिषी वैमानिक में कृष्णादि लेश्या नहीं होती है. तेजोलेश्या
एक जीव व बहुत जानना क्योंकि
- प्रकाशक- राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *
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