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१०३ अपएसाय,अहवा सपएसाय अपएसेय अहवा सपएसाय अपएसाय॥सिद्धहिं तियभंगो। भव है सिद्धीय अभवसिद्धीय जहा ओहिया नो भवसिद्धीय नो अभवासद्धीय जीवसिद्धेहिं तिय ।
भंगो,॥ सन्नीहिं जीवादिओतियभंगो,असन्नीएहिं एगिंदियवज्जो तियभंगो, नेरइयदेव मणु ७८३ भामार्थ समदेशी एक अप्रदेशी बहुत ५ सप्रदेशी बहुत अप्रदेशी एक ६ सप्रदेशी बहुत अप्रदेशी बहुत यह छ
भांगे जानना. सिद्ध पद में तीन भांगे जानना. भव्यजीव व अभव्य जीव को औधिक जीव की तरह जानना. इन का एक जीव आश्री व अनेक जीव आश्री ऐसे दो दंडक करना. एक जीव आश्री भव्य अभव्य दोनों नियमा सप्रदेशी होवे, और नरकादि दंडक में सप्रदेशी अप्रदेशी दोनों होवे. बहुत भव्य अभव्य जीव सप्रदेशी होवे इसलिये नरकादिक में तीन भांगे होवे. १ बहुत सप्रदेशी २ बहुत सप्रदेशी एक अप्रदेशी ३ बहुत सप्रदेशी बहुत अप्रदेशी, एकेन्द्रिय में बहुत सप्रदेशी व बहुत अप्रदेशी का भांगा 4 पाता है. सिद्ध भव्य अभव्य नहीं होते हैं, परंतु नोभव्य नोअभव्य होते हैं. इस के बहुत जीव व एक 3 जीव आश्री दो दंडक करना. यह विशेषण मात्र समुच्चय जीवपद व सिद्ध पद ऐसे दो पद में पाता है.g इन में तीन भांगे पाते हैं. संज्ञी के एक जीव व अनेक जीव आश्री दो दंडक हैं उस में अनेक जीव आश्री दंडक के जीवादि पद में तीन भांगे पाते हैं १ संझी जीव कालादेशसे सप्रदेशी है/ क्यों की बहुत काल के उत्पन्न हुए होते हैं २ बहुत सप्रदेशी एक अपदेशी उत्पात विरहा-१,
ङ्ग विवाह पण्णत्ति ( भगवती ) सूत्र १०383
14 छठा शतकका चौथा उद्देशा६१३१४