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अमोलक ऋापजी
तहेव ॥ एवं हत्थि, सीहं नग्धं जाव चिल्ललगं ॥ २ ॥ पुरिसेणं भंते । अण्णतरं तसपाणं हर्णमाणे किं अण्णतरं तसपाणं हणइ णोअण्णतरे तसे पाणे हणइ ? गोयमा! अण्णतरंपि तसपाणं हणइ, गोअण्णतरेवि तसपाणे हणइ, से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ अण्णतरंपि तसं पाणं हणइ, णो अण्णतरेवि तसेपाणेहणइ ? गोयमा ! तस्सणं एवं भवइ एवं खलु अहं एगं अण्णतरं तसं पाणं हणामि, सेणं एगं अण्णतरं तसं पाणं हणमाणे अगेगे जीवे हणइ से तेणटेणं गायमा ! तंत्र ॥ एए सव्वेवि एक्कगमा
॥ ३ ॥ पुरिसेणं भंते इसिं हणमाणे किं इसिं हणइ णोइसिं हणइ ? गोयमा! इसिपि भगवन् ! किस कारन से ऐसा कहा गया है ? अहो गौतम ! जैसे पुरुष का कहा वैसे ही अश्व का जानना. ऐसे ही हस्ती, सिंह. व्याघ्र यावत् चित्ता तक कहना ॥ २ ॥ अहो भगवन् ! पुरुष किसी त्रस
गी को मारता या क्या किसी ब्रा प्राणी को मारता है या इस सिवा अन्य को मारता है? अहो - गौतम ! वत प्राणी को मारता है व त्रस प्राणि सिवा अन्य को भी मारता है. अहां भगवन ! ऐसा किस कारन से कहा गया है ? अहो गौतम ! उस का ऐसा अभिप्राय हावे कि मैं एक त्रस प्राणि कोई
मारता हूं इस से उस के आश्रित अनेक त्रस प्राणि को मारता है इसलिये ऐसा कहा गया है. यो सब ॐ जीवों की घात आश्री एक गम्मा कहना ॥ ३ ॥ अहो भगवन् ! पुरुष ऋषि की घात करता हुवा क्या
* प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी मालाप्रसादजी *
भावार्थ
अनुवादक-बालब्रह्म