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शब्दार्थ की वा० बावीस सागरोपम की ठि० स्थिति ५० प्ररूपी ॥ ३६ ॥ • भगवन् व. खंदक दे० देवता
में दे० देवलोक में से आ० आयुष्य क्षयसे भ० भवक्षय से अ० पीछे च० चवकर क. कहां ग. जागे क०कहाँ उ० उत्पन्नहोंगे गो गौतम म० महाविदेह में सिसिझेगा बुबुझेगा मुमुक्तहोगा निर्वाण पामेगा स सब दु० दुःखों का अ० अंतकरेगा ॥ २॥ ३॥ + + + ठिई पण्णत्ता. तत्थणं खंदयस्सवि देवस्स बावीसं सागरोक्माई ठिई पण्णत्ता
॥ ३६ ॥ सेणं भंते ! खंदए देवत्ताओ देवलोयाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता कहिं गमिहिति, कहिं उववाजिहिति? गोयमा ! महाविदेहे सिज्झिहिति, बुझिहिति मुञ्चिहिति, परिनिव्वाहिति, सव्वदुक्खाण मंतं
करिहिति,खंदओ सम्मत्तो ॥३७॥ विईय सयस्स पढमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ २ ॥१॥ भावार्थ
स्थिति है ॥ ३६ ॥ वहां देवलोक में आयुष्य, मव व स्थिति का क्षय होने से चाकर खंदक अनगार कहाँ उत्पन्न होगे ? अहो गौतम ! वहां से चवकर महाविदेह क्षेत्र में उत्तम कुल में जन्म लेकर वैराग्य को
माप्त होकर सिझेंगे, बुझेंगे, मुक्त होवेंगे, निर्वाण को प्राप्त करेंगे यावत् सब दुख का अंत करेंगे यह खिंदक जीव का आधिकार समाप्त हुवा. यह दूसरा शतकका पहिला उद्देशा सम्पूर्ण हुवा ॥२॥१॥
22 अनुवादक बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमालक ऋषिजी -
प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी मालापसादजी