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शब्दार्थ जा. यावत् अ० अग्नि जी. जीव स० शरीर व वक्तव्यता सि. होवे ॥ ११ ॥ ल लवण भ० भगवन् । | एस. समुद्र में के. कितना च० चक्रवाल वि. विष्कंभपना प० प्ररूपा ए. ऐसे ने० जानना. जा० यावत्
लो० लोकस्थिति लो० लोकानुभाव ॥ १२ ॥ से ऐसे ही भ० भगवन् भ० भगवान जा. यावत् वि० विचरते हैं पं० पांचवे स० शतक में वी० दूसरा उ० उद्देशा स• समाप्त ॥ ५ ॥२॥
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पंचमांग विवाह पण्णत्ति ( भगवती )
जाव अगणि जीव सरीराइ वत्तव्यंसिया ॥ ११ ॥ लवणेणं भंते ! समुद्दे केव. इयं चकवाल विक्खंभेणं पण्णत्ते एवं नेयव्यं जाव लोगट्रिई, लोयाणुभावे ॥१२॥ सेवं भंते भंतेत्ति भगवं जाव विहरइ ॥ पंचमसए बीईओ उद्देसो सम्मत्तो ॥५॥२॥
पांचवा शतकका दूसरा उद्देशा go
अहो गौतम ! पू पर्याय आश्रित एकेन्द्रिय यावत् पंचेन्द्रिय का शरीर कहा है. फीर शस्त्र यावत् आग्नि , भावार्थ
परिणम ने से अग्नि जीव शरीर कहाते हैं ॥ ११ ॥ अहो भगवन् ! लवण समुद्र की परिधि कितनी कही? अहो गौतम ! लवण समुद्र दो लाख योजन का लम्बा चौडा है और १५८११.३५ योजन से कुच्छ |
अधिक की उमकी परिधि कही है वगैरह जीवाभिगम सूत्र से अनुभाव तक कहना. अहो भगवन् ! आप के ॐ वचन सत्य हैं ऐसा कहकर तप संयम से आत्मा को भावते हुए श्री गौतम स्वामी विचरने लगे. यह ७ |
पांचवा शतकका दूसरा उद्देशा पूर्ण हुवा ॥ ५ ॥ २ ॥
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