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शब्दार्थी । अ० अन्यतीर्थिक भं० भगवन ए. ऐसा आ० कहते हैं ५० प्ररूपते हैं से० अब ज जैसे जा० जाल
ग्रंथका आ० अनुक्रम से ग० गुंथीहुई प० परंपरा से गं० गुंथीहुई अ० परस्पर गं० गुंथीहुई अ० परस्पर गु० विस्तार युक्त अ० परस्पर भा० वजनदार अ० परस्पर गुरु विस्तीर्ण सं० वजनदार अ० परस्पर घ०१ रचीहुई चि० हैं एक ऐसे ही ब० बहुत जी०जीवों के व०बहुत आ०आजाति स०सहस्र ब० बहुत आ० आ
अण्णउत्थियाणं भंते ! एव माइक्खंति भासेति पण्णवेति, एवं परूवति, से जहा नामए जाल गंठियाइवा आणुपुद्विगंठियाअणंतरगंठिया, परंपरगंठिया, अण्णमण्णगठिया, अण्णमण्ण गुरुयत्ताए, अण्णमण्णभारियत्ताए,अण्णमण्णगुरुसंभारियत्ताए,अण्णमण्णघडत्ताए चिटुंति एवामेव बहूणं जीवाणं बहसु आजाइसहस्सेसु, बहूई आउयसहस्साई आणुपुट्विं
गंठियाइं जाव चिटुंति । एगे वियणं जीवे एगेणं समएणं दो आउयाइं पडिसंवेदेइभावार्थ दुसरे उद्देशे में समुद्रादिक का सत्यज्ञान ज्ञानियोंने कहा, अब आगे मिथ्यात्वीयोंका असत्यज्ञान कहते हैं.
श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को गौतम स्वामी वंदना नमस्कार कर ऐसा प्रश्न पुछने लगे कि अहो
न् ! अन्य तीर्थिक ऐसा कहते हैं यावत् प्ररूपते हैं कि जैसे मत्स्य पकडने की जाली अनुक्रम गुंथी हुई, परंपरा ( एक ग्रन्थी अनंतर दूसरी ग्रन्थी) से गुन्थी हुई. परस्पर गुन्थी हुई, परस्पर वीस्तीर्ण | ४ परस्पर वजनवाली और वीस्तीर्ण व वजनवाली होती है वैसे ही बहुत देवतादि जन्म में अनेक जीवों के *
अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी
* प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी मालाप्रसादजी *