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ANAVANAVANAVA
शब्दार्थ वैसे ही ॥ ९॥ पु० पुरुष भं० भगवन् ध० धनुष्य ५० ग्रहण करता है उ० बाण प० ग्रहण *
करता है ठ० स्थान ठा. वैठे आ० खींचा हुया क. कर्ण पर्यंत उ० वाण क० कर उ० ऊर्ध्व वे० आकाश में उ० छोडे त तब से वह उ० वाण ७० ऊर्थ वे० आकाश में उ० छोडा हुवा जा० जो त० तहां पा० प्राण भू० भन जी० जीव स० सत्व अ० हणावे व० वर्तुलाकार करे ले० मीले
सं० परस्पर गात्रों को एकत्रित करे सं० थोडा स्पर्श करे ५० दुःखदेवे कि० किलामना उत्पन्न करे ठा० में स्थान से सं० जावे जी० जीवित से व• पृथक् करे त तब भ० भगवन से उस पु० पुरुष को क०कितनी
पुरिसेणं भंते ! धणुं परामुसइ २ उसु परामुसइ २ ठाणं ठाइ २ आययकण्णाययं ___ उसुं करेइ २ उ8 वेहासं उसु उब्विहइ, तएणं से उसू उर्दु वेहासं उविहिए समाणे
जाई तत्थ पाणाइं भूयाइं जीवाइं सत्ताइं अभिहणइ वत्तेइ लेस्सेइ संघाएइ संघट्टेइ परितावेइ किलामेइ ठाणाओ ठाणं सकामइ जीवियाओ ववरोवेइ तएणं भंते ! सेपुरिसे कइ
किरिए ? गोयमा ! जावं च णं से पुरिसे धणुं परामुसइ २ जाव उव्विहइ ताई चणं । भावार्थ धनुष्य आश्री क्रिया का प्रश्न करते हैं. अहो भगवन् ! कोई पुरुष धनुष्य पर वाण रखकर आसन
सहित कर्ण पर्यंत प्रत्यंचा खींचकर ऊंचे आकाश में वाण छोडे, फीर आकाश में वाण छोडते हुए प्राण भूत, जीव व सत्वोंको हणे, वर्तुलाकार बनावे, स्पर्श करे, संघटना करे, परिताप उत्पन्न करे, दुःख
। अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी 8.
* प्रकाशक-राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी *