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शब्दार्थ नगरी में रू० रूप जा० जाने पा० देखे हैं. हां जा जाने पा० देखे ॥ ४ ॥ पूर्ववत् ॥ ५ ॥ अ० अण
अण्णहाभावं जाणइ पासइ ? गोयमा ! तहाभाव जाणइ पासइ, नो अण्णहा भावं जाणइ पासइ । सेकेणट्रेणं ? गोयमा ! तस्सणं एवं भवइ नो खलु एस रायगिहे, णो
खलु एस बाणारसी नगरी णो खलु एस अंतरा एगे. जणवयवग्गे, एस खलु ममं __वीरिय लडी वेउव्विय लडी, ओहिनाण लडी, इट्ठी, जुत्ती, जसे बले वीरिए पुरि__ सक्कारपरक्कमे लढे पत्तेअभिसमण्णागए, सेसे दंसणे अविवच्चासे भवइ,से तेणटेणं गोयमा!
एवं वुच्चइ, तहा भाव जाणइ पासइ, नो अण्हाभावं जाणइ पासइ ॥ ५ ॥ अणभावार्थ क्या वे यथातथ्य भाव जाने देखे या अन्यथा भाव जाने देखे ? अहो गौतम : वे यथाई
तथ्य भाव जाने देखे परंतु अन्यथा भाव जाने व देखे नहीं. अहो भगवन् ! किस कारन से वे यथातथ्य भाव जाने देखे परंतु अन्यथा भाव जाने देखे नहीं ? अहो गौतम ! उन को ऐसा विचार होवे कि यह राजगृह नगर नहीं है, यह बाणारसी नगरी नहीं है यह उन के बीचका जनपद नहीं है,
परंतु यह वीर्य लब्धि, वैकेय लब्धि, अवधि ज्ञान की लब्धि, ऋद्धि, द्युति, यश, बल, वीर्य, पुरुषात्कार व पराक्रम मुझे प्राप्त हुवा है. इस तरह दर्शन के समपरिणाम से मति सम होती है. इसलिये अहो गौतम!
ऐसा कहा गया है कि वे यथातथ्य भाव जाने व देख परंतु अन्यथा भाव जाने देख नहीं ॥ ५ ॥ अहो
पण्णात्त ( भगवती ) सूत्र <283 Pat पंचमाङ्ग विवाह
तीसरा शतक का छठा उद्देशा
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