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शब्दार्थ |
सूत्र
वार्थ
पंचमाङ्ग विवाह पष्णत्ति (भगवती) सूत्र
(स० श्रमण भ० भगवन्त म० महावीरकी अं० पात घ० धर्म सो० सुनकर नि० अवारकर ह० हृष्ट तु०तुष्ट जा० यावत् ह० हर्षहुवा हि० हृदयमें उ० स्थान હે खडे हुवे उ० खडे होकर स० श्रमण भ० भगवन्त म० महावीर की ति० तीनवार आ० आदान प० प्रदक्षिणा की क० करके ए० ऐसा व बोले स० श्रद्धा हूं मं० भगवन् नि० निग्रंथ पा० प्रवचन को प० प्रतीत करता हूं रो० करता हूं ए० ऐसे ही मं० भगवन्तः तैसे मं भगवन् अ० सत्य अ०
रुre करता हूं अ० उद्यम ॐॐॐ संदेहरहित इ० इच्छित प०
तसे खंदए कच्चायणसगोन्ते समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं सोच्चा निसम्म हट्ट जाव हयहियए उट्ठाए उट्ठेइ उट्ठेइत्ता समणं भगवं महावीरं तिखुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ करेइत्ता एवंवयासी, सदहामिणं भंते! निग्गंथं पात्रयणं, पत्तियामिणं भंते निग्गंथं पावयणं रोएमिणं भंते ! निग्गंथं पात्रयणं, अब्भुट्ठेमिणं भंते!
नि
पात्रणं, एवमेयं भंते ! तहमेयं भंते ! अवितहमेयंमंते ! असंदिमेयं भंते ! इच्छिय समीप धर्म सुनकर व अवधार कर अत्यंत हर्षित हुए और तत्काल उठकर श्रमण भगवतं महावीर को तीन आदान प्रदक्षिणा कर के ऐसा कहा कि अहो भगवन् ! निर्ग्रन्थ वचन को मैं श्रद्धता हूं, उन की रुचि कर ता हूं, उन मत्रचनों की मैं प्रतीति करता हूँ, उन प्रवचनों में मैं धनवन्त बना हुआ हूँ, अहो भगवन्! निय प्रवचन वैसे ही यथायोग्य है, संदेह रहित, इष्ट है. मतीमित है. ऐसा कहकर श्री महावीर स्वामी
उ०
दूसरा शतकका पहिला उद्देशा
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