________________
शब्दार्थ |
सूत्र
भावार्थ
488* पंचमांग विवाह पण्णचि ( भगवती ) सूत्र 418+
{स० शब्द से उ० उद्घोषणा करते ए० ऐसा व० बोलना णो० नहीं दे० देवानुप्रिय गो गोशाला मं० मंखली पुत्र जि० जिन जि० जिन प्रलापी जा० यावत् वि० विचरता ए० यह गो० गोशाला मं० मंखली (पुत्र स० श्रमण घा० घातक जा० यावत् छ० छग्नस्थ में का० काल प्राप्त हुवा ॥ १३५ ॥ त० तब ते ०
० आजीविक थे: स्थविर गो० गोशाला मं० मंखली पुत्र को का० काल प्राप्त जा० जानकर हा० ( हालाहला कुं० कुभकारिणी के कुं० कुभकार शाला के दु० द्वार पि० ढके हा० हालाहला कुँ० कुपकारी लावी जाव विहरइ || एसणं गोसाले चैव मंखलिपुत्ते समणघायए जाव छउमत्थे
चैत्र कालगए || समण भगवं महावीरे जिणे जिणप्पलावी जाव विहरइ आणिड्डी असक्कार समुदणं ममं सरीरगस्स नीहरणं करेज्जह, एवं वदिता कालगए ॥ १३५ ॥ तणं ते आजीविया थेरा गोसालं मंखलिपुत्तं कालगयं जाणित्ता हालाहलाए कुंभकारी कुंभकारावणस्स दुबारा पिहेँति २ ता हालाहलाए कुंभकारीए कुंभका{ यावत् छद्मस्थपना में काल धर्म को प्राप्त हुवा है. श्रमण भगवंत महावीर जिन जिन प्रलापी यावत् जिन ( शब्द प्रकाश करते हुवे विचरते हैं. और बिना ऋद्धि, सत्कार व सन्मान से मेरे शरीर का निहारन करना. ऐसा बोलकर काल कर गया ॥ १३५ ॥ अत्र आजीविक स्थविरोंने मंखली पुत्र गोशाला को मृत्यु प्राप्त हुवा जानकर हालाहला कुंभकारिणी की कुंभकारशाला के द्वार बंध किये.
और कुंभकार शाखा
4034340 पनरहवा शतक 43+4+
२१११