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शब्दार्थ की कुं० कुभकर शाला के व० बहुत म० मध्यभाग में सा० श्रावस्ती ण. नगरी की आ. आलेखनी
की गा० गोशाला मं० मंग्वलीपुत्र का वा० बांया पा० पांव सु० सूत्र से बै० बंधा ति० तीन वार मु०॥ मुख में उ० थूका सा० श्रावस्ती ण नगरी में सिं० शृंगाटक जा० यावत् प० पथ में आ० इधर उधर, क० करते णी० नीच स० शब्द से उ० उद्घोषणा क० करते ए. ऐसा व० बोला णो० नहीं दे देवानु- 1 है रावणस्स बहुमज्झदेसभाए सवात्थिं णयरिं आलिहंति २ त्ता, गोसालस्स मंखालपु. १
त्तस्स सरीरगं वामे पादे सुंवेणं बंधति तिक्खुत्तो मुहे उट्ठभहंति २ त्ता सावत्थीए णयरीए सिंघाडग जाव पहेसु आकविकढिं करेमाणे णीयं सद्देणं उग्घोसेमाणा २
एवं वयासी णो खलु देवाणुप्पिया ! गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे जिणप्पलावी जाव रकी मध्य बीच में श्रावस्ती नगरी का चित्र नीकाला. पश्चात् मंखली पुत्र गोशाला का बांया पांव रस्सी से
बांधा और तीन बार उस के मुख में धुके. पाछे श्रावस्ती नगरी के शृंगाटक यावत् महापथ में इधर उधर घसीट कर नीच शब्दों से उद्घोषणा करते हुवे ऐसा बोलने लगे कि अहो देवानुप्रिय ! मखली पुत्र गोशाला जिन जिन प्रलापी यावत् जिन शब्द प्रकाश करता हुका नहीं विचरता था. यह मंखली पुत्र गोशाला श्रमण की घात करनेवाला यावत् छद्मस्थपना में ही काल कर गया है. श्रमण भगवंत महावीर जिन जिन प्रलापी यावत् जिन शब्द प्रकाश करते हुवे विचरते हैं. इस तरह शपथ मुक्त होकर दूसरी वक्त
48 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
काशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी*