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शब्दाथ
सूत्र
4.2 अनुवादक-बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी:
छयस्थ में का० काल क०करूंगा सश्रमण भ.भगवंत म०महावीर जि जिन जि० जिन प्रलापी जा यावत् । जि.जिन शब्द प.प्रकाश करते वि०विचरते हैं तेइसलिये तक तुम दे देवानप्रिय म०मुझे का काल गया हुना जा. जानकर वा० बांये पा० पांव मुं. रस्सी बं. बांधना ति० तीन वार मु० मुख में उ० यूंकना मा० श्रावस्ती ण नगरी में सिं० शंगटक जा. यावत् प० पथ में आ० इधर उधर क० करते म० बडे २
जिणे जिणप्पलावी जाव जिणसदं पगासमाणे विहरइ, तं तुभेणं देवाणुप्पिया ! ममं । कालगयं जाणित्ता वामपाएसुंवेण बंधह, वा २ ता तिक्खुत्तो मुहे उहुभहति२ ता. सावत्थीए णयरीए सिंघाडग जाव पहेसु आकविकढेि करेमाणे महया महया सदेणं
उग्धोसेमाणा २ एवं वदह णो खलु देवाणुप्पिया! गोसाले मंखलिपुत्ते जिणे जिणप्पहवा नहीं विचरता हूं. मैं मंखलीपुत्र गोशाला श्रमण की घात करनेवाला यावत् छद्मस्थ में ही काल करूंगा. श्रमण भगवंत महावीर स्वामी जिन जिन प्रलापी यावत् जिन शब्द प्रकाश करते हवे विचरते हैं इस से अहो देवानुप्रिय ! मेरे काल हुवे पीछे मेरा बांया पांच रस्सी से बांधकर तीन वक्त मुंह में यूंकना. फीर श्रावस्ती नगरी में शंगाटक यावत् महापथ में घसीट कर ले जाते हुवे बडे २ शब्द से ऐसी उद्घोषणा करना कि अहो देवानुप्रिय ! मखली पुत्र गोशाला जिन व जिन प्रलापी नहीं है यावत् जिन शब्द प्रकाश करता हुवा नहीं विचरता है. परंतु वह मेखली पुत्र गोशाला श्रमण की घात करनेवाला ।
* प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी*
भावाथा
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