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शब्दार्थ १ ० प्रमण भ० बगवंत म. महावीर म० बम्पदा कदापि पु० पुर्वानुपूर्वी च. लवे . शरद ०१
जहाँ में, मेंटिक ग्राम ण नगर जे. जहां सा०शालकोटक चे० उद्यान जा. यावत १० परिषदा LE पाठीगइ ॥ १४० ॥ त० तब स० श्रमण भ० भगवंत म. महावीर के स० शरीर में वि. विपुल रो017
तिक पा० उत्पन्न हवा उ. उज्वल जा. यावत् दु० दुःह पि.पित्तज्वर से १० परिगत स. शरी वाला द० दाह से व• व्युत्क्रान्त वि• विचरतेथे अ० अपिच लो० रुधिर ५० मल ५० करके च. चारों ६० वर्ण वा० बोले स० श्रमण भ० भगवंत म० महावीर गो० गोशाला मं० मंखलीपुत्र के त.
कयाइं पुव्याणुपुट्विं चरमाणे जाव जेणेव मिढियगामे णयर जेणेव सालकोट्ठए चइए चेव जाव परिसा पडिगया ॥ १४ ॥ तएणं समणरस भगवओ महावीरस्स सरीरगंसि विउले रोगायंके पाउन्भूए उज्जले जाव दुरहियासे पित्तजरपरिगय सरीरे दाहवक्तीए यावि विहरइ, अवियाई लोहियपच्चाईपि पकरेइ, चाउवण्णं वाग.
रेइ, एवं खलु समणे भगवं महावीर गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स तवेणं तेएणं अणाइटे भावार्थ पण भगवंत महावीर पूर्णनुपूर्वि चरते यावत् ग्रामानुग्राम विचरते मिढय ग्राम नगर के शाल कोष्टक उद्यान में
पधारे यावत् परिषदा पोछी गइ ॥ १४० ॥ अब महावीर स्वामी के शरीर में विगुल रोगांतक उत्पन्न हुवा वह उज्जल यावत् सहन नहीं होमके वैमा हुवा. शरीर में पिचवर परिणमगया, दाह होने लगा और रुपिर का
अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी *
प्रकाशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी .