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428 पंचमांगविवाह १ण्णनि ( भगवती) सूत्र 882
ठिती जहण्णेणं वासपुहुत्तं उक्कोसणं पुन्चकोडी एवं अणुबंधोवि, सेसं तंचेव जाव भवादेसोत्ति ॥ कालादेसेणं जहण्णणं सागरोवमं वासपुहुत्तमभहियं उक्कोसणं वारस सागरोवमाई चउहिं पुन्चकोडीहिं अब्भहियाई एवइयं जाव करेजा ॥ ५ ॥ एवं एसा ओहिएसु तिसुगमएमु मणुस्स लद्धी जाणत्तं-णेरइयद्विती कालादेसेणं संबेह च जाणेजा ॥ सोचत्र अप्पणा जहण्ण कालद्वितीओ जाओ तस्सवि तिएसु मएसु
एसचेव लडी णवरं सरीरोगाहणा जहणणं रयाणपुहुत्तं उक्कोसेणंवि रयाणिपुहुत्तं अवगाहना जघन्य प्रत्येक हाथ उत्कृष्ट पाँचसो धनुष्यकी स्थिति जघन्य प्रत्येक वर्ष उत्कृष्ट पूर्व क्रोड ऐसे ही अनुबंध. शेष भवादेश पर्यत पहिल जैसे जानना. कालादेश से जघन्य एक सागरोपम और प्रत्येक वर्ष से अधिक उत्कृष्ट बारह सागरोपम और चार पूर्व क्रोड अधिक. इतना यावत् करे ॥ ५४॥ ऐसे ही यह मनुष्य लब्धि तीनों औधिक-औधिक में, औषिक जघन्य स्थिति और औधिक उत्कृष्ट स्थिति में कहना.
विशेष में नरकस्थिति का कालादेश से कायासंबंध जानना. प्रथम गमा में स्थित्यादिक वगैरह जानना. ॐ द्वितीय गमा में औधिक जघन्य स्थिति में स्थिति जघन्य तथा उत्कृष्ट सागरोपम की. संवैध काल से 4
जघन्य एक सागरोपम और प्रत्येक वर्ष अधिक का चार सागरोपम चार प्रत्येक वर्ष अधिक. तीसरे में।
48 चौबीसका शतक का परिला उद्देशा +