________________
.
शब्दार्थ आ. आश्रय सं० संवर:नि० निर्जरा कि क्रिया अ० अधिकरण 40 बंध प० मोक्ष कु. कुशल अ०१
सहे नहीं दे० देव अ० असुर ना० नाग सुः सुवर्ण ज० यक्ष र० राक्षस कि० किन्नर किं० किंपुरुष ग. गरुड ग. गंधर्व म० महोरगादि. दे० देवगण से नि० निग्रंथके पा० प्रवचन को अ अतिक्रमे नहीं नि. निग्रंथ पा. प्रवचन में नि० शंकारहित नि० कांक्षारहित वि० संदेहरहित ल० प्राप्त
जक्ख रक्खस किण्णर किंपुरिस गरुल गंधव महोरगादीएहिं देवगणेहिं निग्गं- . ___थाओ पावयणाओ अणतिकमाणिज्जा ॥ निग्गंथे. पावयणे निस्संकिया, निक्कंखि
या, निन्वितिगिच्छा, लट्ठा, गहियट्ठा, पुच्छियट्ठा अभिगयट्ठा, विणिच्छियट्ठा,
___ अट्रिमिंजपेम्माणुरायरत्ता ॥ अयमाउसो ! निग्गंथे पावयणे अटे, अयं परमेटे, भावार्थ TA }पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, क्रिया, अधिकरण, बंध व मोक्ष को जानने में बहुत कुशल थे. आपत्ति
ल में देव, असुर, नाग, सुवर्ण, यक्ष, किन्नर, किंपुरुष, गरुड, गंधर्व महोरगादिक की सहायता नहीं लेने वाले थे. स्वयं कृत कर्म भोगने की मनोवृत्तिवाले थे, वैसे ही उक्त देवों निग्रंथ के प्रवचन से चलित करने पर भी वे श्रमणोपासक चालत नहीं होते थे. वैसे ही वे जीवादि तत्व है या नहीं ऐसी शंका, कांक्षा व अन्य दर्शनी की वांच्छा रहित थे. वैसे ही शास्त्र के अर्थ को उन को हवा था. उनोंने अच्छी तरह सम्यक् प्रकार से ग्रहण किया था. किसी प्रकार का संशय उत्पन्न होने पर
पंचमाङ्ग विवाह पण्णत्ति (भगवती) सूत्र 488
4843. दूसरा शतक का पांचवा उद्देशा