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शब्दाथ
पंचगंग विवाह पण्णत्ति ( भगवती) सूत्र
अं.अंजलिप जोडकर ममनसे ए. स्थिर करके जे.जहांथे० स्थविर भ. भगवन्त ते तहां उ० आकरति०, तीनवार आदान प्रदक्षिणा क. करे जायावत् ति त्रिविधप० सेवनासे पासेवे॥१५॥त तबते वेथे०१० स्थविर भ भगवन्त स. श्रमणोपासक को ती. उस म. बडी प.परिषदा में चा० चार यायाम घ०धर्म कहे ज. जैसे के० केशीस्वामी जा. यावत् स० श्रावकपना आ० आज्ञा आ० आराहित भ० होवे जा यावत् ध० धर्म क० कहा ॥ १६॥ त तव ते वे स. श्रमणोपासक थे. स्थविर भ: भगवन्त की
मणसा एगत्ती करणेणं, जेणेवथेरे भगवंतो तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छइत्ता
तिक्खुत्तो आयाहिण पयाहिणंवा करेंति जाव तिविहाए पज्जुवासणाए पज्जुवासंति ॥ है ॥ १५ ॥ तएणं ते थेरा भगवंतो तेसिं समणोवासयाणं तीसेय महइ महालियाए है परिसाए चाउज्जामं धम्म परिकहेंति जहा केसिसामिस्स जाव समणोवासइत्ताए,
आणाए आराहए भवइ जाव धम्मो कहिओ ॥ १६ ॥ तएणं ते समणोवासया सेवा भक्ति की ॥ १५॥ तब उन स्थविर भगवन्तने श्रावकों को उस महती परिषदा, में चार याम 00 वाला धर्म कहा. जैसे रायप्रसेणी सूत्र में केशी अनगारने प्रदेशी राजा को धर्मोपदेश कहा था वैसे यावन धर्म की सम्यक् प्रकार से आराधना करनेवाला श्रमणोपासक आराधक होता है वगैरह धर्मोपदेश कहा ॥ १६ ॥ तब उन स्थविर भगवन्त की पास धर्म सुनकर श्रमणोपासक हृष्ट तुष्ट चित्तवाले
दुसग शतक का पांचवा उद्दशा8488
भावार्थ